क्या आप चाहते हैं अपने जीवन में विष्णु जी की कृपा और हृदय में आध्यात्मिक बल? नारायण हृदय कवच एक दिव्य कवच है जो आस्था, भक्ति और सुरक्षा तीनों प्रदान करता है। जानें इसकी पाठ विधि और लाभ।
नारायण हृदय कवच भगवान विष्णु के ह्रदय स्वरूप की स्तुति है, जो न केवल ह्रदय की शुद्धि करता है, बल्कि आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाला मार्ग भी बनता है। इस लेख में हम जानेंगे नारायण ह्रदय कवच का महत्त्व, उसका शाब्दिक अर्थ, पाठ विधि, लाभ और इसकी दिव्यता के पीछे छिपे रहस्य।
नारायण हृदय कवच भगवान श्रीहरि विष्णु की कृपा प्राप्त करने और सभी प्रकार की बाधाओं से रक्षा पाने के लिए एक अत्यंत प्रभावशाली स्तोत्र है। यह कवच भक्त को नकारात्मक ऊर्जाओं, भय, रोग, शत्रु और संकटों से बचाने में सहायक माना जाता है।
राजोवाच
यया गुप्तः सहस्त्राक्षः सवाहान् रिपुसैनिकान्।
क्रीडन्निव विनिर्जित्य त्रिलोक्या बुभुजे श्रियम् ।।1।।
भगवंस्तन्ममाख्याहि वर्म नारायणात्मकम्।
यथाssततायिनः शत्रून् येन गुप्तोsजयन्मृधे ।।2।।
श्रीशुक उवाच
वृतः पुरोहितोस्त्वाष्ट्रो महेन्द्रायानुपृच्छते।
नारायणाख्यं वर्माह तदिहैकमनाः शृणु।।3।।
विश्वरूप उवाचधौताङ्घ्रिपाणिराचम्य सपवित्र उदङ् मुखः।
कृतस्वाङ्गकरन्यासो मन्त्राभ्यां वाग्यतः शुचिः।।4।।
नारायणमयं वर्म संनह्येद् भय आगते।
पादयोर्जानुनोरूर्वोरूदरे हृद्यथोरसि।।5।।
मुखे शिरस्यानुपूर्व्यादोंकारादीनि विन्यसेत्।
ॐ नमो नारायणायेति विपर्ययमथापि वा।।6।।
करन्यासं ततः कुर्याद् द्वादशाक्षरविद्यया।
प्रणवादियकारन्तमङ्गुल्यङ्गुष्ठपर्वसु।।7।।
न्यसेद् हृदय ओङ्कारं विकारमनु मूर्धनि।
षकारं तु भ्रुवोर्मध्ये णकारं शिखया दिशेत्।।8।।
वेकारं नेत्रयोर्युञ्ज्यान्नकारं सर्वसन्धिषु।
मकारमस्त्रमुद्दिश्य मन्त्रमूर्तिर्भवेद् बुधः।।9।।
सविसर्गं फडन्तं तत् सर्वदिक्षु विनिर्दिशेत्।
ॐ विष्णवे नम इति।।10।।
आत्मानं परमं ध्यायेद ध्येयं षट्शक्तिभिर्युतम्।
विद्यातेजस्तपोमूर्तिमिमं मन्त्रमुदाहरेत।।11।।
ॐ हरिर्विदध्यान्मम सर्वरक्षां न्यस्ताङ्घ्रिपद्मः पतगेन्द्रपृष्ठे।
दरारिचर्मासिगदेषुचापाशान् दधानोsष्टगुणोsष्टबाहुः।।12।।
जलेषु मां रक्षतु मत्स्यमूर्तिर्यादोगणेभ्यो वरूणस्य पाशात्।
स्थलेषु मायावटुवामनोsव्यात् त्रिविक्रमः खेऽवतु विश्वरूपः।।13।।
दुर्गेष्वटव्याजिमुखादिषु प्रभुः पायान्नृसिंहोऽसुरयुथपारिः।
विमुञ्चतो यस्य महाट्टहासं दिशो विनेदुर्न्यपतंश्च गर्भाः।।14।।
रक्षत्वसौ माध्वनि यज्ञकल्पः स्वदंष्ट्रयोन्नीतधरो वराहः।
रामोऽद्रिकूटेष्वथ विप्रवासे सलक्ष्मणोsव्याद् भरताग्रजोsस्मान्।।15।।
मामुग्रधर्मादखिलात् प्रमादान्नारायणः पातु नरश्च हासात्।
दत्तस्त्वयोगादथ योगनाथः पायाद् गुणेशः कपिलः कर्मबन्धात्।।16।।
सनत्कुमारो वतु कामदेवाद्धयशीर्षा मां पथि देवहेलनात्।
देवर्षिवर्यः पुरूषार्चनान्तरात् कूर्मो हरिर्मां निरयादशेषात्।।17।।
धन्वन्तरिर्भगवान् पात्वपथ्याद् द्वन्द्वाद् भयादृषभो निर्जितात्मा।
यज्ञश्च लोकादवताज्जनान्ताद् बलो गणात् क्रोधवशादहीन्द्रः।।18।।
द्वैपायनो भगवानप्रबोधाद् बुद्धस्तु पाखण्डगणात् प्रमादात्।
कल्किः कले कालमलात् प्रपातु धर्मावनायोरूकृतावतारः।।19।।
मां केशवो गदया प्रातरव्याद् गोविन्द आसङ्गवमात्तवेणुः।
नारायण प्राह्ण उदात्तशक्तिर्मध्यन्दिने विष्णुररीन्द्रपाणिः।।20।।
देवोsपराह्णे मधुहोग्रधन्वा सायं त्रिधामावतु माधवो माम्।
दोषे हृषीकेश उतार्धरात्रे निशीथ एकोsवतु पद्मनाभः।।21।।
श्रीवत्सधामापररात्र ईशः प्रत्यूष ईशोऽसिधरो जनार्दनः।
दामोदरोऽव्यादनुसन्ध्यं प्रभाते विश्वेश्वरो भगवान् कालमूर्तिः।।22।।
चक्रं युगान्तानलतिग्मनेमि भ्रमत् समन्ताद् भगवत्प्रयुक्तम्।
दन्दग्धि दन्दग्ध्यरिसैन्यमासु कक्षं यथा वातसखो हुताशः।।23।।
गदेशनिस्पर्शनविस्फुलिङ्गे निष्पिण्ढि निष्पिण्ढ्यजितप्रियासि।
कूष्माण्डवैनायकयक्षरक्षोभूतग्रहांश्चूर्णय चूर्णयारीन्।।24।।
त्वं यातुधानप्रमथप्रेतमातृपिशाचविप्रग्रहघोरदृष्टीन्।
दरेन्द्र विद्रावय कृष्णपूरितो भीमस्वनोऽरेर्हृदयानि कम्पयन्।।25।।
त्वं तिग्मधारासिवरारिसैन्यमीशप्रयुक्तो मम छिन्धि छिन्धि।
चर्मञ्छतचन्द्र छादय द्विषामघोनां हर पापचक्षुषाम्।।26।।
यन्नो भयं ग्रहेभ्यो भूत् केतुभ्यो नृभ्य एव च।
सरीसृपेभ्यो दंष्ट्रिभ्यो भूतेभ्योंऽहोभ्य एव वा।।27।।
सर्वाण्येतानि भगन्नामरूपास्त्रकीर्तनात्।
प्रयान्तु संक्षयं सद्यो ये नः श्रेयः प्रतीपकाः।।28।।
गरूड़ो भगवान् स्तोत्रस्तोभश्छन्दोमयः प्रभुः।
रक्षत्वशेषकृच्छ्रेभ्यो विष्वक्सेनः स्वनामभिः।।29।।
सर्वापद्भ्यो हरेर्नामरूपयानायुधानि नः।
बुद्धिन्द्रियमनः प्राणान् पान्तु पार्षदभूषणाः।।30।।
यथा हि भगवानेव वस्तुतः सद्सच्च यत्।
सत्यनानेन नः सर्वे यान्तु नाशमुपाद्रवाः।।31।।
यथैकात्म्यानुभावानां विकल्परहितः स्वयम्।
भूषणायुद्धलिङ्गाख्या धत्ते शक्तीः स्वमायया।।32।।
तेनैव सत्यमानेन सर्वज्ञो भगवान् हरिः।
पातु सर्वैः स्वरूपैर्नः सदा सर्वत्र सर्वगः।।33।।
विदिक्षु दिक्षूर्ध्वमधः समन्तादन्तर्बहिर्भगवान् नारसिंहः।
प्रहापयँल्लोकभयं स्वनेन ग्रस्तसमस्ततेजाः।।34।।
मघवन्निदमाख्यातं वर्म नारयणात्मकम्।
विजेष्यस्यञ्जसा येन दंशितोऽसुरयूथपान्।।35।।
एतद् धारयमाणस्तु यं यं पश्यति चक्षुषा।
पदा वा संस्पृशेत् सद्यः साध्वसात् स विमुच्यते।।36।।
न कुतश्चित भयं तस्य विद्यां धारयतो भवेत्।
राजदस्युग्रहादिभ्यो व्याघ्रादिभ्यश्च कर्हिचित्।।37।।
इमां विद्यां पुरा कश्चित् कौशिको धारयन् द्विजः।
योगधारणया स्वाङ्गं जहौ स मरूधन्वनि।।38।।
तस्योपरि विमानेन गन्धर्वपतिरेकदा।
ययौ चित्ररथः स्त्रीर्भिवृतो यत्र द्विजक्षयः।।39।।
गगनान्न्यपतत् सद्यः सविमानो ह्यवाक् शिराः।
स वालखिल्यवचनादस्थीन्यादाय विस्मितः।
प्रास्य प्राचीसरस्वत्यां स्नात्वा धाम स्वमन्वगात्।।40।।
य इदं शृणुयात् काले यो धारयति चादृतः।
तं नमस्यन्ति भूतानि मुच्यते सर्वतो भयात्।।41।।
एतां विद्यामधिगतो विश्वरूपाच्छतक्रतुः।
त्रैलोक्यलक्ष्मीं बुभुजे विनिर्जित्यऽमृधेसुरान्।।42।।
1. सर्वरक्षा कवच (हर संकट से रक्षा)
सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जाओं, बुरी शक्तियों, भूत-प्रेत बाधाओं, और तंत्र-मंत्र से सुरक्षा मिलती है। अनहोनी घटनाओं, दुर्घटनाओं और अकाल मृत्यु से रक्षा करता है।
2. शत्रु नाशक एवं बाधा निवारण
शत्रुओं और विरोधियों के दुष्प्रभाव से बचाता है। कानूनी मामलों, मुकदमों और अन्य संघर्षों में विजय दिलाने में सहायक होता है।
3. आर्थिक समृद्धि और व्यापार में वृद्धि
व्यापार, नौकरी और धन-संपत्ति में बरकत होती है। कर्ज से मुक्ति मिलती है और धन संबंधी परेशानियां समाप्त होती हैं। नित्य पाठ करने से परिवार में कभी भी धन की कमी नहीं होती।
4. उत्तम स्वास्थ्य और रोग नाशक प्रभाव
गंभीर और असाध्य रोगों से बचाव करता है और रोगी को शीघ्र स्वस्थ करता है। मानसिक तनाव, चिंता, भय और अवसाद को दूर कर मन को शांत करता है। शरीर में सकारात्मक ऊर्जा और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
5. दीर्घायु एवं अकाल मृत्यु से बचाव
व्यक्ति को दीर्घायु, बल और पराक्रम की प्राप्ति होती है। यह अकाल मृत्यु, दुर्घटना और असमय संकटों से रक्षा करता है।
6. आध्यात्मिक उन्नति और आत्मबल
साधक का मन शांत और एकाग्र रहता है, जिससे ध्यान और साधना में सफलता मिलती है। यह व्यक्ति को आत्मबल, साहस और आध्यात्मिक जागरूकता प्रदान करता है। ईश्वर भक्ति बढ़ती है और जीवन में सकारात्मक बदलाव आता है।
7. वैवाहिक जीवन और पारिवारिक सुख में वृद्धि
पारिवारिक शांति और आपसी संबंध मधुर बनते हैं। पति-पत्नी के बीच प्रेम बढ़ता है और वैवाहिक जीवन में खुशहाली आती है। परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
8. संतान सुख और संतान की रक्षा
संतान प्राप्ति में बाधा दूर करता है। संतान को सभी प्रकार की बुरी नजर, नकारात्मक शक्तियों और संकटों से बचाता है।
9. मोक्ष प्राप्ति और पापों से मुक्ति
यह पाठ व्यक्ति को सभी प्रकार के पापों से मुक्त करता है। मृत्यु के समय भगवान विष्णु का स्मरण होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
10. मनोकामना पूर्ति
यह कवच सभी इच्छाओं की पूर्ति करने में सहायक होता है। जो भी श्रद्धापूर्वक इसका पाठ करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
गुरुवार, एकादशी, पूर्णिमा, द्वादशी, और विशेष विष्णु पर्वों पर पाठ करना अत्यंत शुभ होता है।
प्रतिदिन ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4:00 से 6:00 बजे) में पाठ करना सर्वोत्तम है।
यदि सुबह संभव न हो, तो सूर्यास्त के बाद भी पाठ किया जा सकता है।
पाठ करने से पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
पीले वस्त्र पहनना शुभ माना जाता है।
पाठ करने से पहले मन और स्थान की शुद्धि करें।
भगवान विष्णु या श्रीहरि नारायण की मूर्ति/चित्र के समक्ष पाठ करें।
दीपक जलाएं और शुद्ध घी अथवा तिल के तेल का उपयोग करें।
तुलसी के पत्ते, पीले फूल, चंदन, और नैवेद्य अर्पित करें।
एक पीला आसन बिछाकर उत्तर या पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठें।
पाठ करने से पहले भगवान विष्णु का ध्यान करें और मन में संकल्प लें कि आप इस पाठ को अपनी रक्षा, समृद्धि, और आध्यात्मिक उन्नति के लिए कर रहे हैं।
"ॐ नमो नारायणाय" मंत्र का 11 या 21 बार जाप करें।
श्रद्धा और भक्ति भाव से पूरे मनोयोग के साथ पाठ करें।
यदि संभव हो, तो पाठ से पहले विष्णु सहस्त्रनाम, विष्णु स्तोत्र या नारायण अष्टक का भी पाठ करें।
उच्च स्वर में या मन ही मन पढ़ सकते हैं, लेकिन भाव से पढ़ना आवश्यक है।
एक बार, तीन बार, सात बार या 11 बार पाठ करने से विशेष लाभ प्राप्त होते हैं।
पाठ के बाद भगवान विष्णु की आरती करें (ॐ जय जगदीश हरे)।
प्रसाद (तुलसी दल, पंचामृत, फल) का वितरण करें।
भगवान विष्णु से आशीर्वाद मांगें और संपूर्ण जगत की भलाई की प्रार्थना करें।
पाठ करते समय मन को शांत रखें और एकाग्रता बनाए रखें।
पाठ के दौरान अशुद्ध या नकारात्मक विचार न रखें।
पूर्ण सात्त्विक भोजन करें और मांस, मद्य आदि का त्याग करें।
यदि किसी विशेष कार्य, संकट निवारण, या मनोकामना पूर्ति के लिए पाठ कर रहे हैं, तो 21 या 40 दिन तक नित्य पाठ करें।
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