
क्या आप जानते हैं इंदिरा एकादशी 2026 कब है? जानिए इस व्रत की तिथि, पूजा विधि, मुहूर्त, महत्व और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का रहस्य – सब कुछ एक ही जगह!
पद्म पुराण के अनुसार, आश्विन मास के पितृपक्ष में आने वाली इन्दिरा एकादशी का पुण्य यदि पितृगणों को समर्पित किया जाए तो नरक में गए पितृगण भी नरक से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। तो चलिए आज हम इसी पुण्यदायिनी एकादशी के बारे में विस्तार से जानते हैं।
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को इन्दिरा एकादशी का व्रत रखा जाता है। अन्य एकादशियों की तरह ये एकादशी भी भगवान विष्णु को समर्पित है। इंदिरा एकादशी पितृपक्ष में पड़ती है, इसलिए इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन व्रत रखने वाले जातक को धन-समृद्धि के साथ-साथ उनके पितरों की आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है।
अपने व अपने पितरों के समस्त पापकर्मों को नष्ट करने के लिए इन्दिरा एकादशी का व्रत विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। इस एकादशी पर भगवान विष्णु के स्वरूप शालिग्राम की पूजा की जाती है। इस दिन अन्न ग्रहण नहीं किया जाता है, हालांकि फलाहार का सेवन किया जा सकता है। एकादशी पर दान का विशेष महत्व है।
इन्दिरा एकादशी पर किसी ब्राह्मण को फलाहार का भोजन करवायें, और उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान-दक्षिणा देकर विदा करें। और फिर द्वादशी के दिन मुहूर्त के अनुसार इस व्रत का पारण करें। इस दिन जितना हो सके 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का जप करें एवं विष्णु सहस्त्र नाम का पाठ करें। व्रती जातक को पूजा के समय इन्दिरा एकादशी की कथा का श्रवण या वाचन करना चाहिए।
इन्दिरा एकादशी व्रत के अनुष्ठान आश्विन कृष्ण पक्ष की दशमी से ही आरंभ हो जाते हैं। ऐसे में चलिए जानते हैं कि दशमी व एकादशी पर व्रती के लिए क्या विधान हैं-
प्राचीन सतयुग में महिष्मति नाम की एक समृद्ध और दिव्य नगरी थी। वहाँ इंद्रसेन नाम के एक पराक्रमी, धर्मनिष्ठ और विष्णु-भक्त राजा राज्य करते थे। उनके शासन में प्रजा सुखी थी, राज्य में धन, अनाज और वैभव की कभी कमी नहीं रहती थी। राजा अपने पुत्र-पौत्रों से लेकर पूरे परिवार के साथ परम संतोष का जीवन जी रहा था।
एक दिन राजा इंद्रसेन अपनी परिषद् में बैठे हुए राजधर्म पर चर्चा कर रहे थे, तभी अचानक आकाश मार्ग से देवर्षि नारद उनके महल में अवतरित हुए। राजा उन्हें देखकर तुरंत उठ खड़े हुए, हाथ जोड़कर प्रणाम किया और विधिपूर्वक आसन, अर्घ्य और सम्मान प्रदान किया।
आसन ग्रहण करने के बाद नारदजी ने स्नेहपूर्वक पूछा “हे राजन! क्या आपके शरीर के सातों अंग स्वस्थ हैं? आपकी बुद्धि धर्म में और मन श्रीहरि की भक्ति में स्थिर रहता है?” राजा ने विनम्रता से उत्तर दिया “हे मुनिश्रेष्ठ! आपके आशीर्वाद से राज्य में पूर्ण सुख-शांति है और सभी यज्ञ-कर्म भी सुचारू रूप से संपन्न हो रहे हैं। कृपा करके अपने आगमन का कारण बताइए।”
तब नारदजी बोले “हे नरेश! मैं ब्रह्मलोक से यमलोक गया था। वहाँ धर्मराज ने मुझे अत्यंत आदरपूर्वक सत्कार दिया। उसी सभा में मैंने तुम्हारे पिताजी को देखा। वे अत्यंत सदाचारी, सत्यवादी और धमार्थ को महत्व देने वाले पुरुष थे, परंतु दुर्भाग्यवश एक बाधा के कारण उनके द्वारा एकादशी का व्रत अधूरा रह गया। इसी कारण वे यमलोक में निवास कर रहे हैं।”
नारदजी ने आगे कहा “उन्होंने तुम्हारे लिए संदेश दिया है: ‘यदि मेरा पुत्र आश्विन कृष्ण पक्ष की इंदिरा एकादशी का व्रत मेरे नाम से कर ले, तो मुझे स्वर्ग की प्राप्ति हो जाएगी।’ इसी उद्देश्य से मैं तुम्हारे पास आया हूँ।” यह सुनकर राजा इंद्रसेन ने आदरपूर्वक कहा “हे देवर्षि! कृपया इस व्रत की नियम-विधि विस्तार से बताइए।”
नारदजी बोले “दशमी तिथि की सुबह स्नान करके शुद्ध होकर दोपहर में नदी में जलस्नान करो। इसके बाद श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करें और उस दिन केवल एक बार भोजन करें।
अगले दिन, यानी एकादशी को प्रातः स्नान-दातून आदि करने के बाद व्रत का संकल्प लें। भगवान विष्णु का ध्यान कर कहें ‘हे अच्युत, हे पुंडरीकाक्ष! आज मैं सभी प्रकार के भोगों का त्याग करके पूर्ण निराहार व्रत करूँगा। कृपया मेरी रक्षा करें।’
इसके पश्चात शालिग्राम भगवान के सम्मुख पितरों का विधिवत श्राद्ध किया जाता है, ब्राह्मणों को फलाहार कराया जाता है और दक्षिणा भी दी जाती है। बचा हुआ श्राद्ध जल या सामग्री गौ को अर्पित करनी चाहिए।
इसके बाद धूप-दीप, गंध, पुष्प और नैवेद्य द्वारा भगवान विष्णु की पूजा करें और रात में जागरण कर हरि नाम का स्मरण करें।
द्वादशी के दिन प्रातः पुनः भगवान का पूजन करने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराएँ और फिर स्वयं भी परिवार सहित मौन होकर भोजन करें।
नारदजी बोले “हे राजन! यदि तुम इस व्रत को पूरे मन से करोगे, तो तुम्हारे पिता अवश्य स्वर्गलोक को प्राप्त करेंगे।” यह कहकर नारदजी अंतर्ध्यान हो गए।
नारदजी के बताए अनुसार राजा इंद्रसेन ने अपने परिवार, सेवकों और संबंधियों के साथ इंदिरा एकादशी का व्रत किया। व्रत समाप्त होते ही आकाश से पुष्पों की वर्षा होने लगी और राजा के पिता गरुड़ पर आरूढ़ होकर दिव्य विष्णुलोक को प्रस्थान कर गए।
राजा इंद्रसेन भी इस व्रत के प्रभाव से दीर्घकाल तक निष्कंटक शासन कर अंत में अपने पुत्र को राज्य सौंपकर स्वयं भी स्वर्गधाम को पधारे।
एकादशी की रात तुलसी माता के सामने घी का दीपक जलाएं। इसके बाद शांत मन से 11 बार “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का जप करें। ऐसा माना जाता है कि इस उपासना से न केवल भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं, बल्कि मां लक्ष्मी का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है। उनकी कृपा-प्रभाव से घर में सुख समृद्धि आती है।
पीपल का वृक्ष को भगवान विष्णु का प्रतीक माना गया है। इंदिरा एकादशी की रात थोड़े से दूध मिले पानी को पीपल के वृक्ष पर अर्पित करें और वहीं सरसों के तेल का दीपक जलाएं। यह उपाय बाधाओं को शांत करने में सहायक माना गया है और जीवन में स्थिरता लाने में मदद करता है।
एकादशी की रात दक्षिणावर्ती शंख में गंगाजल भरकर भगवान विष्णु का अभिषेक करें। इस उपाय से घर की आर्थिक स्थिति मजबूत होती है, और नौकरी व व्यापार में सफलता मिलती है।
भगवान विष्णु को पीला रंग अत्यंत प्रिय माना गया है। इसलिए एकादशी की पूजा में पीले फूल, पीले वस्त्र और पीली मिठाई अर्पित करना शुभ फल देता है। इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और जातक की सभी इच्छाएं पूर्ण होती हैं।
एकादशी की रात भगवान विष्णु की मूर्ति या चित्र के सामने बैठकर विष्णु सहस्रनाम का पाठ करें। सहस्रनाम का पाठ घर में सकारात्मक ऊर्जा को सक्रिय करता है और वातावरण से नकारात्मकता दूर होती है।
ये थी इन्दिरा एकादशी से जुड़ी विशेष जानकारी। हमारी कामना है कि आपको इस व्रत का संपूर्ण फल प्राप्त हो, पितरों को मोक्ष प्राप्त हो, और आप पर भगवान विष्णु की कृपा सदैव बनी रहे।
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