क्या है जगन्नाथ पुरी के महाप्रसाद की महिमा
क्या है जगन्नाथ पुरी के महाप्रसाद की महिमा

क्या है जगन्नाथ पुरी के महाप्रसाद की महिमा

मिलती है महाप्रभु की कृपा


जगन्नाथ महाप्रसाद की कथा (Story Of Jagannath Mahaprasad)



सनातन धर्म में भगवान जगन्नाथ की पूजा पूरी श्रद्धा के साथ की जाती है। हर साल ओडिशा राज्य के पुरी नामक शहर में स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को एक भव्य रथ यात्रा निकाली जाती है। इस दिन भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा विशाल रथों पर बैठकर नगर भ्रमण करते हैं। इस साल यह यात्रा 07 जुलाई से शुरू हो रही है। इस यात्रा का जितना महत्व बताया गया है, उतना ही महत्व श्री हरी के महाप्रसाद का भी बताया गया है। आइए जानें जगन्नाथ महाप्रसाद की महिमा के बारे में-

ऐसा माना जाता है की श्री हरी के महाप्रसाद को ग्रहण करने से भक्त उनकी मायाशक्ति पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रसंग को लेकर नारद मुनि की एक सुंदर कथा मिलती है।

कथा


एक बार नारद मुनि भगवान विष्णु के महाप्रसाद को चखने की इच्छा से वैकुंठ धाम पहुंचे और पूर्ण भक्ति भाव से माता लक्ष्मी की सेवा करने लगे। इस प्रकार बारह वर्ष बीत गए, फिर एक दिन माता लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर नारद जी से कहा, “मैं आपकी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं। आप मनचाहा वरदान मांग लीजिए।”

यह सुन नादरजी विनय भाव से कहने लगे कि, “हे माता! अनंतकाल से मेरे हृदय की इच्छा रही है कि मैं भगवान विष्णु के महाप्रसाद का अस्वादन करूँ। कृपया मेरी यह अभिलाषा पूरी कर दीजिये।”

यह सुन माता लक्ष्मी तो दुविधा में पड़ गई क्योंकि श्री विष्णु ने तो उन्हें किसी को भी महाप्रसाद न देने का कठोर निर्देश दिया था। अब वह उनकी आज्ञा का उल्लंघन कैसे करतीं? किन्तु फिर भी उन्होंने नारदजी को कुछ व्यवस्था करने का आश्वासन दिया।

कुछ समय पश्चात् माता लक्ष्मी भगवान विष्णु के पास गईं और उन्हें अपने ह्रदय की बात बता दी। उन्होंने बताया कि उन्होंने भूलवश नारदमुनि को भगवान का महाप्रसाद देने का वचन दे दिया है। यह सुन भगवान विष्णु कहने लगे, “हे प्रिये! तुमसे बहुत भारी भूल हुई है परन्तु अब तुमने वचन दे ही दिया है, तो तुम नारदमुनि को मेरी अनुपस्थिति में मेरा महाप्रसाद दे सकती हो।”

इसके बाद जब नारदमुनि को प्रसाद दिया गया, तब महाप्रसाद के स्पर्श मात्र से उनके तेज और अध्यात्मिक शक्ति की वृद्धि हुई और उन्हें दिव्य भाव की अनुभूति होने लगी।

नारदमुनि को संसार का प्रथम पत्रकार ऐसे ही नहीं बोला जाता है, महाप्रसाद चखने के बाद वह यह समाचार महादेव शिव तक पहुंचाने गए। पूर्ण प्रसंग सुनकर कैलाशपति पूछते हैं कि, "हे नारद! यह सुनकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई किन्तु क्या तुमने ऐसे दुर्लभ महाप्रसाद का एक कण भी मेरे लिए नहीं रखा?”

यह सुनकर नारदमुनि लज्जित हो गए। फिर उन्हें स्मरण हुआ कि उनके पास अभी भी थोड़ा सा महाप्रसाद बचा हुआ था। जैसे ही शिवजी ने प्रसाद ग्रहण किया वैसे ही वह श्री हरी के प्रेम में मस्त होकर नृत्य करने लगे। उनके नृत्य की थिरकन को सुन माता पार्वती वहा पहुंची और शिवजी से नृत्य करने का कारण पूछने लगीं।

शिवजी ने उन्हें सारी बात बताई, वह सुनकर माता पर्वती रुष्ठ हो गई कि शिवजी ने उन्हें थोड़ा सा भी महाप्रसाद नहीं दिया। वह कहने लगीं, “स्वामी, मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ और मुझे बहन मानने वाले श्री हरी का महाप्रसाद ग्रहण करना मेरा अधिकार है! आज मैं प्रतिज्ञा लेती हूं कि यदि भगवान श्रीहरि मुझ पर अपनी करुणा दिखाएंगे तो मैं प्रयास करूंगी की उनका महाप्रसाद ब्रह्मांड के प्रत्येक व्यक्ति, देवता और यहां तक की सभी प्राणियों को भी प्राप्त हो।”

माता पर्वती के वचन की रक्षा हेतु, उसी क्षण भगवान विष्णु वहां प्रकट हो गए और बोले कि, “हे देवी पार्वती! मैं आपको वचन देता हूं कि मैं स्वयं आपकी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूंगा। मैं पुरुषोत्तम क्षेत्र पुरी में जगन्नाथ रूप में प्रकट होऊंगा और ब्रह्मांड के प्रत्येक जीव को अपना महाप्रसाद प्रदान करूंगा।”

आज भी जगन्नाथ मंदिर में पहले भगवान जगन्नाथ को भोग लगाया जाता है उसके पश्चात वह महाप्रसाद सर्वप्रथम विमलादेवी यानी कि माता पार्वती के मंदिर में अर्पित किया जाता है। और फिर सारे भक्तजनों को वितरित किया जाता है।


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