image
downloadDownload
shareShare
ShareWhatsApp

मित्रता दिवस 2025 कब है?

मित्रता दिवस 2025 कब है? जानें इस खास दिन की तारीख, महत्व और दोस्तों के साथ इसे यादगार बनाने के बेहतरीन तरीके

मित्रता दिवस के बारे में

मित्रता दिवस धार्मिक दृष्टि से मित्रता को जीवन में धर्म, कर्तव्य और सच्चे साथ का प्रतीक माना जाता है। राम-हनुमान, कृष्ण-सुदामा जैसे दिव्य मित्र संबंध हमें यह सिखाते हैं कि सच्ची मित्रता सेवा, त्याग और विश्वास पर आधारित होती है।

मित्रता दिवस 2025

भारत समेत कई देशों में अगस्त के पहले रविवार को मित्रता दिवस मनाया जाता है। मित्रता हर-जाति धर्म से परे होती है। 03 अगस्त 2025 को भारत में मित्रता दिवस मनाया जाएगा।

  • मित्रता दिवस | फ्रेंड्शिप डे
  • 96वाँ मित्रता दिवस समारोह
  • 03 अगस्त, 2025, रविवार
  • अगस्त का प्रथम रविवार
  • संयुक्त राज्य अमेरिका और भारतीय उपमहाद्वीप में, मित्रता दिवस अगस्त के पहले रविवार को मनाया जाता है।
  • 2011 में, संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने आधिकारिक अन्तरराष्ट्रीय मैत्री दिवस के रूप में 30 जुलाई को घोषित किया।
  • संयुक्त राष्ट्र ने विनी - द पूह को फ्रेंडशिप डे के विश्व राजदूत के रूप में नामित किया है।
  • मैत्री दिवस उस भूमिका को बढ़ावा देता है, जो कई संस्कृतियों में शान्ति को बढ़ावा देने में मित्रता करती है।

मित्रता दिवस क्या है?

मित्रता दिवस, जिसे इंग्लिश में Friendship Day कहा जाता है, वह दिन है जब हम अपने जीवन के सबसे खास रिश्ते — दोस्ती — का जश्न मनाते हैं। यह दिन अपने दोस्तों को धन्यवाद देने, उनके प्रति प्यार और आभार जताने और इस अनमोल रिश्ते को और मजबूत बनाने का प्रतीक होता है।

हर साल अगस्त के पहले रविवार को अंतरराष्ट्रीय मित्रता दिवस मनाया जाता है। इस दिन दोस्त एक-दूसरे को बंधनसूचक फ्रेंडशिप बैंड बांधते हैं, उपहार देते हैं और मिलकर यादगार समय बिताते हैं।

क्यों मनाते हैं मित्रता दिवस?

मित्रता एक ऐसा रिश्ता है जो खून का नहीं होता, लेकिन कई बार खून के रिश्तों से भी बढ़कर होता है। मित्रता दिवस मनाने का उद्देश्य है — अपने उन मित्रों को विशेष रूप से याद करना, जो हमारे जीवन में खुशियाँ, समर्थन और सच्ची समझदारी लेकर आते हैं। यह दिन केवल नए दोस्तों का नहीं बल्कि पुराने, भुला दिए गए, दूर हो चुके मित्रों को भी याद करने और फिर से संबंध जोड़ने का अवसर होता है।

मित्रता दिवस का महत्व

  • यह दिन हमें यह समझाने का अवसर देता है कि दोस्ती कितनी मूल्यवान है।
  • आज के तेज़ रफ्तार जीवन में यह दिन रिश्तों को फिर से सहेजने और वक्त निकालने का बहाना बन जाता है।
  • बच्चों से लेकर बड़ों तक, यह दिन हर उम्र के लोगों के लिए खास होता है।

मित्रता दिवस का धार्मिक महत्व

हालाँकि मित्रता दिवस आधुनिक समय में पाश्चात्य परंपरा से जुड़ा है, लेकिन भारतीय धर्म और संस्कृति में मित्रता का महत्व प्राचीन काल से रहा है। वेदों और पुराणों में भी "सखा" और "मित्र" जैसे शब्दों का विशेष महत्व है। मित्रों को जीवन के सुख-दुख का सहभागी और धर्म-मार्ग का साथी कहा गया है।

भगवान कृष्ण और सुदामा, कर्ण और दुर्योधन, राम और निषादराज गुह, कृष्ण और अर्जुन — ये सभी संबंध हमारे ग्रंथों में मित्रता की अमर मिसालें हैं।

हिन्दू धर्म में प्रचलित मित्रता के उदाहरण

  • कृष्ण-सुदामा – यह मित्रता बताती है कि सच्ची दोस्ती में कोई भेदभाव नहीं होता।
  • राम-गुह – राजा और वनवासी के बीच की यह मित्रता समानता और विश्वास की प्रतीक है।
  • कर्ण-दुर्योधन – बिना किसी स्वार्थ के दोस्ती निभाने का अद्भुत उदाहरण।
  • कृष्ण-अर्जुन – गुरु और मित्र के बीच की यह मित्रता धर्मयुद्ध में मार्गदर्शक बनी।

मित्रता दिवस के दिन क्या करना चाहिए

  • अपने दोस्तों को समय दें, उन्हें फोन करें या उनसे मिलें।
  • पुराने दोस्तों से संपर्क करें, चाहे वे स्कूल के हों या कॉलेज के।
  • फ्रेंडशिप बैंड, कार्ड या उपहार देकर दोस्ती को खास बनाएं।
  • सोशल मीडिया पर आभार पोस्ट करें, लेकिन उससे भी ज्यादा व्यक्तिगत जुड़ाव बनाए रखें।
  • जरूरतमंद या अकेले लोगों से मित्रता का हाथ बढ़ाएं — यही सबसे महान मित्रता होगी।

मित्रता दिवस के दिन क्या न करें

  • किसी पुराने झगड़े या कटुता को आगे न बढ़ाएं। यह दिन मेल-मिलाप का है।
  • झूठी या दिखावटी दोस्ती से बचें। यह दिन सच्चाई और भावनात्मक जुड़ाव का है।
  • सोशल मीडिया पर दिखावे के चक्कर में अपने असली दोस्तों को न भूलें।

मित्रता दिवस मनाने के लाभ

  • मानसिक स्वास्थ्य बेहतर होता है क्योंकि सच्चे दोस्त तनाव कम करते हैं।
  • भावनात्मक मजबूती मिलती है — एक भरोसेमंद साथी होने का एहसास।
  • समाज में आपसी सहयोग और सद्भाव बढ़ता है।
  • अकेलेपन, उदासी और निराशा से लड़ने की ताकत मिलती है।

अंत में

मित्रता दिवस केवल एक दिन नहीं है, यह एक भावना है जो हर दिन हमारे भीतर जीवित रहनी चाहिए। सच्चे दोस्त भगवान का दिया हुआ अनमोल तोहफा होते हैं। तो आइए, इस मित्रता दिवस पर हम अपने हर रिश्ते को थोड़ी और आत्मीयता दें, और उन सभी दोस्तों का शुक्रिया कहें जिन्होंने हमारे जीवन को और भी सुंदर बना दिया।

चलिए जानते हैं मित्रता की अनोखी कहानियाँ

वहीं इस उपलक्ष्य में अगर हम हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों पर नज़र डालें तो हमें मित्रता के महत्व को समझाती कई रोचक कथाएं मिलती हैं, जिनमें से कुछ मित्रता की अद्भुत कथाएँ हम लेकर आएँ है।

कृष्ण - सुदामा की मित्रता

जीवन में मित्रता श्री कृष्ण और सुदामा जैसी होनी चाहिए जो अमीरी-गरीबी, अच्छे-बुरे के भेद को दूर रखती है और ऊंच-नीच का भाव नहीं देखती। भारत में सच्ची मित्रता का जिक्र पुराणों में मिलता है। कृष्ण और सुदामा की मित्रता हिंदू पौराणिक कथाओं और भारतीय लोककथाओं में एक प्रसिद्ध कथा है। इस कथा को "कृष्ण-सुदामा कृपा" भी कहा जाता है। यह कथा महाभारत के भीष्म पर्व में आती है और श्रीमद्भागवत पुराण में भी विस्तार से वर्णित है। सुदामा और भगवान कृष्ण दोनों बचपन के मित्र थे। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण थे। उन्होंने संगीत और वेद आदि की शिक्षा साथ में ली थी। धीरे-धीरे दोनों के बीच मित्रता और प्रेम गहरा होता गया। कृष्ण और सुदामा की मित्रता की सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि दोनों के बीच कभी भी स्वार्थ और लोभ का कोई स्थान नहीं था। उन्होंने हमेशा एक-दूसरे के उत्थान और समृद्धि के लिए प्रयास किया।

सुदामा इतने गरीब थे कि उनके घर में खाने तक को अन्न नहीं था। एक दिन, सुदामा की पत्नी ने उन्हें कहा कि कृष्ण अब द्वारका के राजा बन गए हैं, आपको उनके यहां मदद मांगने के लिए जाना चाहिए। जिसके बाद सुदामा पत्नी द्वारा दिए गए तीन मुट्ठी चावल की भेंट लेकर कृष्ण से मिलने पहुंचे।

एक राजा होने के बाद भी कृष्ण सुदामा को अपने महल में लाए। भगवान कृष्ण ने उन्हें अपने सिंहासन पर बैठाया और उन्हें बड़े प्रेम भाव से अपने हृदय से लगा लिया। कृष्ण ने सुदामा के पैर धोए, इस दौरान सुदामा के पैर में चुभे कांटों को देखकर उनके आंखों में आंसू आ गए।

सुदामा की सादगी और भक्ति के भाव ने भगवान श्री कृष्ण के दिल को छू लिया और वे खुशी से फूले नहीं समाए। कृष्ण ने सुदामा द्वारा लाए गए चावलों को खुशी-खुशी स्वीकार करते हुए उसे बड़े चाव से खाया, और उन्हें अपार धन समृद्धि का वरदान दिया। कृष्ण और सुदामा की मित्रता हमें सिखाती है कि एक सच्चा मित्र हमारे जीवन का अनमोल धरोहर होता है और हमें सभी चुनौतियों का सामना करने की शक्ति प्रदान करता है। इस कथा से स्पष्ट होता है कि मित्रता धनी या निर्धन देख कर नहीं की जाती, बल्कि ये एक ऐसा संबंध है जो निस्वार्थ भाव से निभाया जाता है।

महावीर हनुमान और शनिदेव की मित्रता

कौन हैं हनुमान जी व शनिदेव

हनुमान जी, जिन्हें पवनपुत्र भी कहा जाता है, पवन देव के पुत्र हैं, जबकि शनिदेव सूर्य देव के पुत्र हैं। शनिदेव को सबसे क्रूर ग्रहों में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि शनिदेव की दृष्टि जिस पर पड़ जाए, उस व्यक्ति को कई कठिनाइयों का सामना करता है। लेकिन हनुमान जी की उपासना से शनिदेव के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है।

हनुमान व शनिदेव की मित्रता

एक पौराणिक कथा के अनुसार, त्रेतायुग में जब रावण ने सभी ग्रहों को बंदी बना लिया था, तब शनिदेव भी उसकी कैद में थे। रावण की कैद में शनिदेव की शक्तियाँ कमजोर हो गई थीं। राम-रावण युद्ध के दौरान, जब हनुमान जी सीता माता की खोज में लंका पहुंचे, तो उन्होंने वहां सभी ग्रहों को बंदी पाया। जब हनुमान जी ने लंका जलाई, तब शनिदेव भी उसी लंका में बंदी रूप में उपस्थित थे, लेकिन उनकी कमजोर शक्तियों के कारण वे वहां से भाग न सके। उस समय हनुमान जी शनिदेव को छुड़ाकर सुरक्षित स्थान पर ले गए। इस घटना के बाद दोनों की गहरी मित्रता हो गई।

एक अन्य प्रचलित कथा

हनुमान जी और शनिदेव की मित्रता की एक और रोचक कथा है। एक बार, श्रीराम के आदेश पर हनुमान जी किसी महत्वपूर्ण कार्य में लगे हुए थे। उसी समय शनिदेव वहां से गुजर रहे थे। अपनी शरारती प्रकृति के कारण, शनिदेव ने हनुमान जी के कार्य में बाधा डालने का विचार किया। शनिदेव हनुमान जी को परेशान करने लगे, तो हनुमान जी ने उन्हें चेतावनी दी। लेकिन इसके बाद भी जब शनिदेव नहीं माने, तो हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया और अपने कार्य में मग्न हो गए। इधर पूंछ से बंधे होने के कारण शनिदेव बुरी तरह घायल हो गए। अंततः, जब हनुमान जी ने अपना कार्य पूरा किया, तब उन्हें शनिदेव की पीड़ा का एहसास हुआ और उन्होंने उन्हें मुक्त कर दिया।

शनिदेव ने हनुमान जी से क्षमा मांगी और वचन दिया कि वे राम और हनुमान जी के भक्तों को कभी परेशान नहीं करेंगे। इसके बाद, शनिदेव ने हनुमान जी से सरसों का तेल मांगा जिससे वे अपनी चोटों को ठीक कर सकें। हनुमान जी ने उन्हें तेल दिया और शनिदेव के घाव ठीक हो गए। शनिदेव ने कहा कि जो भी भक्त शनिवार को मुझ पर सरसों का तेल चढ़ाएगा, उसे मेरा विशेष आशीर्वाद प्राप्त होगा। इस प्रकार, हनुमान जी और शनिदेव की मित्रता और भी गहरी हो गई।

मित्रता दिवस विशेष: राम व सुग्रीव की मित्रता

दोस्तों, मित्रता के यूं तो बहुत से उदाहरण हैं, लेकिन आज मैं आपको रामायण के एक प्रसंग के बारे में बताऊंगी, जो कि ये दिखाता है कि मित्रता कभी भी जाति, धर्म, घर, व्यापार, अमीर या ग़रीब देखकर नहीं की जाती। ये तो एक ऐसा संबंध है, जो निःस्वार्थ्य भावना, एक दूसरे के प्रति प्रेम व समर्पण की बुनियाद पर बनता है।

मित्रता के इसी अनोखे संबंध को और गहराई से समझने के लिए मैं आपको ले चलूंगी रामायण के किष्किंधा कांड में। यहां रघुकुल नंदन भगवान श्री राम व वानरराज सुग्रीव की मैत्री के बारे में एक बड़ा ही सुन्दर प्रसंग मिलता है। बात उस समय की है, जब रावण ने माता सीता का हरण किया था, और भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ जानकी के वियोग में, उनकी खोज करने के लिए वन-वन भटक रहे थे।

श्री रघुनाथजी सीता को खोजते-खोजते ऋष्यमूक पर्वत के समीप आ गए। ये वही पर्वत था, जहां सुग्रीव अपने भाई बालि के डर से अपने मंत्रियों के साथ निवास करते थे। राम और लक्ष्मण को आते देखकर सुग्रीव भयभीत हो गए, और हनुमान जी से बोले- हे हनुमान! सुनो, ये दोनों पुरुष तो बहुत बलवान जान पड़ते हैं। ऐसा करो, कि तुम ब्रह्मचारी का रूप धारण कर उनके पास जाओ, और बातों ही बातों में पता लगाओ कि उनके हृदय में क्या है? यानि वो यहां किस मंशा से आये हैं। और ये सब जानने के बाद तुम मुझे इशारा कर देना।

श्रोताओं, यहां सुग्रीव को डर था, कि कहीं इन दोनों युवकों को बालि ने मेरा वध करने के लिए तो नहीं भेजा! रामायण की एक चौपाई में सुग्रीव के भय का वर्णन मिलता है। सुग्रीव हनुमान जी से कहते हैं- पठए बालि होहिं मन मैला। भागौं तुरत तजौं यह सैला। यानि अगर ये दोनों युवक मन के मलिन बालि के भेजे हुए हों तो मैं तुरंत ही इस पर्वत को छोड़कर भाग जाऊँ।

सुग्रीव की आज्ञा मानकर हनुमानजी ने ब्राह्मण का रूप धारण किया, और भगवान राम के पास गए। वो प्रणाम कर बोले:-हे वीर! साँवले और गोरे शरीर वाले आप कौन हैं, और इस वन में क्यों विचरण कर रहे हैं? ये सुनकर भगवान राम बोले- हे विप्र! हम अयोध्या के राजा दशरथजी के पुत्र हैं, और पिता का वचन मानकर वन आए हैं। मेरा नाम राम हैं, और ये मेरे छोटे भाई लक्ष्मण हैं। हमारे साथ मेरी प्यारी पत्नी सीता भी थीं। लेकिन यहाँ वन में किसी राक्षस ने उनका हरण कर लिया, बस हम उन्हें ही खोजते फिर रहे हैं। भगवान राम आगे बोले- हे ब्राह्मण! हमने तो अपने बारे में बता दिया, अब आप कहिए! कौन हैं आप?

इधर, अब तक हनुमान जी प्रभु को पहचान चुके थे। उन्होंने भगवान राम को साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया, और भगवान से विनती करते हुए बोले- हे रघुवीर! मेरी भूल क्षमा करें, मैं मंद बुद्धि वानर अपने प्रभु को न पहचान सका। ऐसा कहकर हनुमान जी अकुलाकर भगवान राम के चरणों में गिर पड़े, और अपने असली रूप, यानि वानर रूप में आ गए। तब श्रीराम ने पुलकित होकर उन्हें उठाया और अपने हृदय से लगा लिया, और कहा- हे कपि! सुनो, मन छोटा मत करो! तुम मुझे लक्ष्मण से भी दूने प्रिय हो।

स्वामी को प्रसन्न देखकर पवन कुमार हनुमान जी का हृदय हर्ष से भर गया, और उन्होंने भय त्यागकर अपने आने का कारण बताया। हनुमान जी ने कहा- हे नाथ! इस पर्वत पर वानरराज सुग्रीव रहते हैं, वे अपने भाई बालि के भय से इस पर्वत पर पर छिपे हैं, उन्हें अपना दास जानकर अपनी शरण में लीजिए प्रभु! यहीं पर हनुमान जी भगवान राम के सामने सुग्रीव से मित्रता करने का प्रस्ताव भी रखते हैं। वो कहते हैं- तेहि सन नाथ मयत्री कीजे। दीन जानि तेहि अभय करीजे

अर्थात् हे नाथ! आप कृपा कर सुग्रीव से मित्रता कीजिए, और दीन जानकर उन्हें निर्भय कर दीजिए। सुग्रीव जहाँ-तहाँ करोड़ों वानरों को भेजकर माता सीता को निश्चय ही खोज लेंगे। इस प्रकार हनुमान जी ने श्री राम-लक्ष्मण दोनों को पीठ पर चढ़ा लिया। इधर हनुमान के मुखमंडल पर हर्षित भाव देखकर सुग्रीव का भी सारा भय जाता रहा।

क्षण भर में हनुमान जी राम-लक्ष्मण को अपने कंधों पर बिठाए, उछलते-कूदते, छलाँग भरते ऋष्यमृक पर्वत के शिखर पर जा पहुँचे । हनुमान ने सुग्रीव को भगवान राम के बारे में बताया, तो सुग्रीव उनके दर्शन कर अपना जीवन धन्य मानने लगे। फिर हनुमान जी ने अग्नि को साक्षी करके दोनों की मित्रता कराई। भगवान राम ने सुग्रीव से कहा कि मैं अग्निदेव के सामने प्रतिज्ञा करता हूं, कि आज से तुम मेरे मित्र हुए। तुम्हारे सुख-दुख को मैं अपना सुख-दुख मानूंगा। मैं तुम्हें वचन देता हूं कि तुम्हें वो सब-कुछ मिलेगा, जिसके तुम अधिकारी हो। और श्री राम ने ऐसा ही किया। उन्होंने दुष्ट बालि का वध करके, सुग्रीव का राज्य वापस दिलाया।

इसी प्रकार सुग्रीव ने भी मित्रता को निभाने की शपथ ली। उन्होंने अपनी वानर-भालुओं की सेना को चारों दिशाओं में माता सीता की खोज के लिए भेजा, और जानकी का पता चलने पर सुग्रीव ने ही वानर व ॠक्ष सेना का प्रबन्ध कर लंका का विनाश करने में भगवान श्री राम की सहायता की।

तो दोस्तों, मित्रता चाहे आज के युग में हो, या कई युगों पहले। ये संबंध हमें दिखाता है कि मित्र किस तरह से एक दूसरे के लिए समर्पित होते हैं, और ज़रूरत पड़ने पर अपनी क्षमता से कई गुना ज़्यादा कर गुज़रते हैं।

भगवान विष्णु व शिवजी की मित्रता

न से नारायण म से महादेव। जी हां, दोनों इस संसार में नमः रूप में आदि देव हैं। दोनों की मित्रता अनंत और प्रचंड है। उनका एक दूसरे के प्रति प्रेम अमर और अखंड है। तभी तो जब भी मित्रता की बात होती है, तो सबसे पहले भगवान विष्णु और महादेव का नाम याद आता है। वैसे तो वास्तव में दोनों एक ही हैं। तभी तो विष्णु सहस्त्रनाम और शिव महापुराण में नारायण और महादेव को एक दूसरे का शाश्वत मित्र बताया गया है।

आइए इस कथा के माध्यम से जानते हैं, कि भगवान विष्णु व शिवजी की मित्रता कैसी थी-

एक बार भगवान विष्णु वैकुंठ लोक में विश्राम कर रहे थे, तभी उन्होंने सपने में त्रिशूल और डमरू धारी महादेव को आनंदित होकर नृत्य करते हुए देखा। जिससे भगवान विष्णु खुशी से गदगद होकर अचानक उठ कर बैठ गए। तभी माता लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से पूछा कि आखिर आपका अचानक निद्रा से जागने का क्या कारण है।

भगवान नारायण ने कहा कि मैंने अपने सपने में शिव जी के दर्शन किए हैं। मुझे ऐसा लग रहा है कि भोलेनाथ मेरा स्मरण कर रहे हैं। हमें कैलाश चलकर महादेव के मिलना चाहिए। भगवान विष्णु ऐसा कह ही रहे थे कि तभी उन्होंने देखा कि स्वयं शिव माता पार्वती के साथ उनकी ओर चले आ रहे हैं और उनकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा। पास आकर दोनों परस्पर बड़े प्रेम से मिले और दोनों के बीच का अलौकिक मिलन पूरी सृष्टि ने देखा था।

पुराणों में भगवान विष्णु और शिव प्रेम की एक और सुंदर गाथा सुनने को मिलती है, जिसके अनुसार, वैकुंठ में एक बार माता लक्ष्मी ने नारायण जी से पूछा कि आपको सबसे ज्यादा प्रिय कौन है। इस पर भगवान विष्णु ने जवाब देते हुए कहा कि, हे- लक्ष्मी मेरे प्रियतम तो केवल महादेव है। देहधारियों की तरह मुझे भी महादेव अत्यंत ही प्रिय है।

भगवान विष्णु ने कहा कि एक बार मैं और महादेव दोनों ही पृथ्वी पर अपनी प्रियतमा की खोज में गए थे। यह सोच कर कि वो भी हमारी तरह देशांतर में भटक रही होगी। थोड़ी देर बाद मेरी महादेव से ही मिलन हो गया। जैसे ही हमने एक दूसरों के नेत्र में देखा, हम दोनों एक दूसरे के प्रति आकृष्ट हो गए।

विष्णु जी आगे बोले- वास्तव में मैं ही जनार्दन हूं और और मैं ही महादेव हूं। अलग-अलग मटकों में रखे हुए जल की भांति। मुझ में और महादेव में कोई अंतर नहीं है। शिव की आराधना करने वाला शिव भक्त भी मुझे अत्यंत प्रिय है। इसके विपरीत जो मेरे महादेव की पूजा नहीं करते वो मुझे प्रिय नहीं हो सकते हैं।

शिव महापुराण के अनुसार भगवान श्री विष्णु और महादेव के मिलन से भगवान अय्यप्पा का जन्म हुआ था। जिनका पूजन दक्षिण भारत में किया जाता है। सत्ययुग में महिषी राक्षस को वरदान था कि उसे केवल विष्णु और शिव का पुत्र ही मार सकता है, लेकिन राक्षस जानता था कि भगवान शिव और भगवान विष्णु का पुत्र होना असंभव है।

बता दें कि समुद्र मंथन के समय भगवान विष्णु ने राक्षसों को अमृत पान करने से रोकने के लिए मोहिनी का रूप धारण कर राक्षसों को अपने रूप से मोहित कर लिया था। भगवान श्री विष्णु ने अपने मोहिनी रूप में भोले भंडारी से प्रेम का निवेदन किया था। तब महादेव और विष्णु के प्रेम मिलन से अय्यप्पा भगवान का जन्म हुआ था। भगवान अय्यप्पा ने 12 साल बाद भयानक राक्षस का वध करके धरती पर फैले उसके आतंक को भी खत्म किया था।

ये थी मित्रता दिवस के अवसर पर भगवान शिव व भगवान विष्णु की मित्रता से जुड़ी कथा।

कर्ण और दुर्योधन की मित्रता

चलिए इस कथा में सुनते हैं कि आज भी कर्ण और दुर्योधन की मित्रता की मिसाल क्यों दी जाती है-

एक बार भगवान परशुराम के आश्रम से निकलकर कर्ण हस्तिनापुर पहुंचे। इधर पांडव और कौरव भी गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा संपन्न कर हस्तिनापुर में अपनी कला कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। इस युद्ध कौशल की परीक्षा में अर्जुन अपनी धनुर्विद्या का प्रदर्शन कर रहे थे। इस सभा में आचार्य द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र, माता गांधारी और कुंती समेत राज्य की प्रजा मौजूद थी, और तभी वहां पर कर्ण का आगमन हुआ।

कर्ण ने देखा कि अर्जुन की विद्या उसके सामने एकदम साधारण है। जिसको देखते हुए कर्ण ने अर्जुन से कहा- हे अर्जुन मैं तुम्हारी कला का आदर करता हूं, लेकिन क्या तुम मुझसे स्पर्धा करने के लिए तैयार हो। इसपर अर्जुन ने कहा कि- हे वीर मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो और कहां से आए हो।

उचित होगा कि यदि तुम मेरे गुरुजनों से इस विषय में चर्चा करो। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य ने कर्ण का नाम पूछा और जानना चाहा कि वो किस राज्य के राजा हैं या फिर राजकुमार। तब कर्ण ने चुप्पी साध ली, क्योंकि वो एक सूत पुत्र थे।

परिस्थिति को समझते हुए दुर्योधन ने सभा को संबोधित करते हुए घोषणा की, हे गुरुजनों, हे पांडवों, हे हस्तिनापुर के वासियों। मैं दुर्योधन कर्ण को अपना मित्र घोषित करता हूं। मैं अपने मित्र कर्ण को अंग राज्य दान देता हूं। मैं अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए कर्ण को अंग देश का राजा बनाता हूं। इसके पश्चात अब कोई भी भविष्य में या ना पूछे कि आखिर कर्ण कौन है?

कर्ण अंगराज हैं और मेरे परम प्रिय मित्र भी हैं। और अब एक राजा होने के नाते अर्जुन से द्वंद युद्ध करने के अधिकारी भी हैं। कर्ण और अर्जुन के बीच गुरुजनों और पितामह भीष्म के हस्तक्षेप के बाद युद्ध तो नहीं हुआ, लेकिन इन सबके बीच दुर्योधन ने लज्जा और अपमान से कर्ण को बचा लिया। जब कर्ण ने दुर्योधन से पूछा कि वो इसके बदले आखिर क्या चाहते हैं, तो दुर्योधन ने कर्ण से केवल मित्रता की बात कही और कर्ण ने भी दुर्योधन की मित्रता का हाथ स्वीकार किया।

कर्ण ने निश्चय किया कि चाहे दुनिया इधर की उधर क्यों न हो जाए वो दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ेंगे। कर्ण ने दुर्योधन का साथ तब भी नहीं छोड़ा जब वो जानते थे कि दुर्योधन सही मार्ग पर नहीं है। कर्ण ने दुर्योधन का साथ तब भी नहीं छोड़ा जब वो जान गए थे कि वो पांडवों का बड़े भाई हैं। कर्ण जानते थे कि दुर्योधन का साथ उन्हें विनाश के मार्ग पर ले कर जा रहा है। परंतु उन्होंने अपनी मित्रता को सबसे श्रेष्ठ रखा और कभी भी पीछे नहीं हटे।

कर्ण को भी पता था कि वो महाभारत के युद्ध में दुर्योधन के कारण मारे जायेंगे, लेकिन फिर भी उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से कहा था, कि हे द्वारकाधीश मृत्यु तो सबके भाग में तय है, लेकिन मैं अपने प्रिय मित्र दुर्योधन को नहीं छोड़ सकता हूं। तभी तो लोग आज भी कर्ण और दुर्योधन की मित्रता के उदाहरण देते हैं। दानवीर कर्ण और दुर्योधन की मित्रता आज पूरी दुनिया के सामने मित्रता का उदाहरण है।

हम दुर्योधन और कर्ण की मित्रता को प्रणाम करते हैं और आशा करते हैं, कि ये कथा आपको सच्ची मित्रता के प्रति अवश्य प्रेरित करेगी।

हनुमान और सुग्रीव की मित्रता

प्रिय दोस्तों... हनुमान और सुग्रीव की मित्रता रामायण के कई आदर्श चरित्रों में से एक है। यह मित्रता रामायण के मूल पात्रों में से दो वानर योद्धाओं की थी, जो भगवान राम से मिलने के बाद उनकी सीता की खोज में उनकी सहायता करते हैं। हनुमान वानरराज सुग्रीव के सबसे निष्ठावान और विश्वासयोग्य सेनापति के साथ साथ एक सच्चे मित्र भी थे।

चलिए इस कथा के ज़रिए हम आपको हनुमान और सुग्रीव की मित्रता का परिचय करवाते हैं। वानर राजा सुग्रीव और उसका भाई बाली किश्किंधा नगर के राजा थे। दोनों भाई एक दूसरे से बहुत प्रेम करते थे। लेकिन एक दिन, बालि ने किश्किंधा राज्य व सुग्रीव की पत्नी को छीन लिया, और राज्य से निकाल दिया। सुग्रीव दुख में डूबे अपने प्राण बचाने के लिए ऋष्यमूक पर्वत पर आकर रहने लगे।

इधर, भगवान राम और उनके भाई लक्ष्मण उस समय वनवास काट रहे थे। रावण ने भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण कर लिया था। राम और लक्ष्मण ने सीता को खोजने का निर्णय किया और उन्हें खोजते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर आ पहुंचे। राम-लक्ष्मण व हनुमान की मुलाकात के बाद, हनुमान ने सुग्रीव को राम और सीता की कथा सुनाई और उनके प्रति विश्वास जताया। सुग्रीव ने भी हनुमान के बल, विशेषतः उनकी वायुपुत्र ताक़त, पर भरोसा किया। वे दोनों भगवान राम की पत्नी सीता की खोज में जुट गए। सुग्रीव ने अपनी वानर भालुओं की सेना के ज़रिए हर संभव मदद की, और हनुमान ने वानर सेना का नेतृत्व किया। हनुमान के प्रयासों और सुग्रीव के समर्थन के साथ, सीता को लेकर गए रावण के राजमहल का पता चला और भगवान राम ने रावण को मारकर सीता को मुक्त कर लिया। सुग्रीव के समर्थन के कारण राम ने बाली का वध करके उसे किश्किंधा नगर का राजा बनाया, और सुग्रीव की पत्नी को भी मुक्त कराया। ये सब इसलिए संभव हुआ, क्योंकि सुग्रीव के पास हनुमान जैसा मित्र था, जिसने भगवान श्री राम का सानिध्य प्राप्त करने में उनकी सहायता की। हनुमान और सुग्रीव की मित्रता दर्शाती है कि अगर मित्रता सच्ची है, तो विपरीत परिस्थितियों में भी आपको अपने मित्र की सहायता के लिए तैयार रहना चाहिए। सुग्रीव की पत्नी रुमा और उसके राज्य को छीन लिया जाना एक बड़ी मुश्किल थी, लेकिन हनुमान ने विपरीत परिस्थिति में भी अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ा।

हनुमान और सुग्रीव की मित्रता दर्शाती है कि भक्ति और समर्पण के माध्यम से हम भगवान या अपने मित्रों के साथ अद्भुत और अटूट रिश्ते बना सकते हैं। हनुमान अपनी भक्ति और समर्पण से भगवान राम के भक्त बन गए और सुग्रीव की भी भगवान से मित्रता कराई।

हनुमान और सुग्रीव की कथा से हमें मित्रता में वफादारी और निःस्वार्थ प्रेम की सीख मिलती है। आशा करते हैं कि ये कहानी आपको पसंद आई होगी। ऐसी ही रोचक कहानियों के लिए जुड़े रहें श्री मंदिर के साथ

divider
Published by Sri Mandir·July 24, 2025

Did you like this article?

आपके लिए लोकप्रिय लेख

और पढ़ेंright_arrow
Card Image

बुध प्रदोष व्रत की तिथि, पूजा विधि और महत्व

बुध प्रदोष व्रत 2025 की तिथि, शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और धार्मिक महत्व की जानकारी पाएं। यह व्रत भगवान शिव को समर्पित होता है और बुद्धवार के दिन पड़ता है।

right_arrow
Card Image

दामोदर द्वादशी 2025 की तिथि, पूजा विधि और महत्व

दामोदर द्वादशी 2025 की तिथि, शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और धार्मिक महत्व की जानकारी प्राप्त करें। यह व्रत भगवान विष्णु के दामोदर रूप की पूजा के लिए विशेष माना जाता है।

right_arrow
Card Image

श्रावण पुत्रदा एकादशी 2025 की तिथि, व्रत कथा और पूजा विधि

श्रावण पुत्रदा एकादशी 2025 की तिथि, व्रत कथा, पूजा विधि और धार्मिक महत्व की संपूर्ण जानकारी जानें। संतान प्राप्ति और सुख-समृद्धि के लिए यह एक विशेष एकादशी मानी जाती है।

right_arrow
srimandir-logo

श्री मंदिर ने श्रध्दालुओ, पंडितों, और मंदिरों को जोड़कर भारत में धार्मिक सेवाओं को लोगों तक पहुँचाया है। 50 से अधिक प्रसिद्ध मंदिरों के साथ साझेदारी करके, हम विशेषज्ञ पंडितों द्वारा की गई विशेष पूजा और चढ़ावा सेवाएँ प्रदान करते हैं और पूर्ण की गई पूजा विधि का वीडियो शेयर करते हैं।

हमारा पता

फर्स्टप्रिंसिपल ऐप्सफॉरभारत प्रा. लि. 435, 1st फ्लोर 17वीं क्रॉस, 19वीं मेन रोड, एक्सिस बैंक के ऊपर, सेक्टर 4, एचएसआर लेआउट, बेंगलुरु, कर्नाटका 560102
YoutubeInstagramLinkedinWhatsappTwitterFacebook