अनन्त चतुर्दशी की कथा

अनन्त चतुर्दशी की कथा

मिलता है सुख-सौभाग्य और उत्तम भविष्य


अनन्त चतुर्दशी की कथा (Anant Chaturdashi Ki Vrat Katha)

महाभारत के युद्ध में पांडवों की जीत के बारे में तो आप सभी ने सुना ही होगा, लेकिन क्या आप जानते हैं कि पांडवों को उनका खोया हुआ वैभव अनंत चतुर्दशी व्रत के प्रभाव से वापिस मिला था। जी हाँ, आज हम आपके लिए लेकर आए है अनंत चतुर्दशी की व्रत कथा, जिसे स्वयं श्रीकृष्ण ने पांडवों को सुनाया था। अनंत चतुर्दशी की यह कथा सुनने मात्र से ही व्रत के समान ही लाभ मिलता है।

अनन्त चतुर्दशी व्रत कथा (Anant Chaturdashi Vrat Katha)

बात उस समय की है जब पांडव कौरवों से चौपड़ में अपना सर्वस्व हार चुके थे, और शर्त के अनुसार उन्हें बारह वर्षों का वनवास भोगना था। वन में रहते हुए सभी पांडव और उनकी पत्नी द्रौपदी बहुत ही हताश और दुर्बल हो गए थे, तब भगवान श्री कृष्ण उनसे मिलने वन पहुंचे।

कृष्ण को देखते ही युधिष्ठिर ने अपनी व्यथा उन्हें सुनाई और दुखी मन से पूछा कि हे तात! मुझे और मेरे कुटुंबजनों को यह दुःख क्यों भोगना पड़ रहा है। कृपा करके इस विषम परिस्थिति से बाहर आने और अपना राज्य वापिस प्राप्त करने का कोई उपाय बताएं।

तब श्री गोविंद ने कहा कि हे धर्मराज! आपको अनंत भगवान को प्रसन्न करने के लिए अनंत चतुर्दशी का व्रत विधि-विधान से करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से आपके सभी पाप नष्ट होंगे और आपकी मनोकामनाएं पूर्ण होंगी। यह व्रत करने से आप सभी लोकों में विजयी बनेंगे।

इसके पश्चात् श्रीकृष्ण बोले, हे धर्मराज! अब आगे इसकी कथा सुनें-

सतयुग में सुमंत नाम के एक ब्राह्मण थे, जिन्होंने वशिष्ठ गोत्र की सुन्दर कन्या दीक्षा से विवाह किया था। सुमंत और दीक्षा की सुशीला नाम की एक कन्या हुई, लेकिन दुर्भाग्यवश कुछ ही समय के बाद दीक्षा को तेज़ बुखार हुआ, जिसकी वजह से उनकी मृत्यु हो गई। सुशीला के लालन-पालन के लिए सुमंत ने कर्कशा नाम की स्त्री से पुनर्विवाह किया। लेकिन भाग्य का खेल देखिए, कर्कशा को सुशीला बिल्कुल भी प्रिय नहीं थी। सुशीला अपनी सौतेली माँ के व्यवहार से बहुत दुखी होती थी, लेकिन वह असहाय थी।

जैसे-जैसे सुशीला बड़ी होने लगी, ब्राह्मण सुमंत को अपनी पुत्री के विवाह की चिंता सताने लगी। उन्होंने वेदों के ज्ञाता, श्रेष्ठ मुनि ऋषि कौडिन्य से विनती की, कि वे उनकी गुणवती कन्या से विवाह करें। ऋषि कौडिन्य ने उनकी विनती स्वीकार की, और सुशीला से विवाह कर लिया।

सुशीला की माता कर्कशा इसपर भी खुश नहीं हुई और उसने सुमंत के कहने पर भी सुशीला को साथ ले जाने के लिए कुछ नहीं दिया। दुखी सुशीला अपने पति के साथ विदा हुई। ऋषि के आश्रम जाते समय बीच मार्ग में उन्हें यमुना नदी के तट पर कई स्त्रियाँ पूजा करते हुए दिखाई दी। सुशीला ने उनसे इसके बारे में पूछा, तब उन महिलाओं ने बताया कि वे अनंत चतुर्दशी का व्रत कर रही है। यह बहुत ही पुण्य फलदायी व्रत है और इसके प्रभाव से वैभव की प्राप्ति होती है।

यह सुनकर सुशीला ने भी व्रत का संकल्प लिया और विधि पूर्वक पूजा करके अनंत सूत्र को धारण किया। इस व्रत की महिमा से ऋषि कौडिन्य का घर धन-धान्य से भर गया, और उनके घर में सुख-समृद्धि का वास हुआ।

लेकिन ऋषि कौडिन्य सुशीला के व्रत से अनजान थे। एक अनंत चतुर्दशी पर सुशीला ने पूरी श्रद्धा से पूजा करके अनंत सूत्र धारण किया। लेकिन ऋषि कौडिन्य को ऐसा प्रतीत हुआ कि सुशीला उनपर किसी तरह का जादू-टोना कर रही है और यह धागा उसी के लिए बांधा है। उन्होंने क्रोधित होकर उस सूत्र को तोड़कर अग्नि में फेंक दिया। उनके इस कृत्य से अनंत भगवान रुष्ट हो गए।

इसके बाद ऋषि कौडिन्य का सारा वैभव और सुख धीरे-धीरे नष्ट हो गया। इससे विचलित होकर उन्होंने अपनी पत्नी सुशीला से इसका कारण जानना चाहा। तब सुशीला ने उन्हें उनकी गलती से अवगत करवाया। अपनी गलती को जानकर ऋषि कौडिन्य वन की ओर निकल पड़े। वहां मार्ग में उन्हें एक आम का वृक्ष, गाय, बैल, पुष्करिणी, एक हाथी और एक गधा मिला। इन सभी से कौडिन्य ने पूछा कि क्या उन्हें भगवान अनंत मिले ?

सबने एक एक करके मना कर दिया, तब ऋषि कौडिन्य ने हताश होकर अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया। जैसे ही कौडिन्य अपने प्राण त्यागने वाले थे, भगवान अनंत उनके समक्ष प्रकट हुए और आखिरकार कौडिन्य को भगवान के ब्रह्माण्ड स्वरूप के दर्शन हुए।

अनंत देव ने उन्हें बताया कि वन में उन्हें जितने भी प्राणी मिले, वे सब पिछले जन्म के मनुष्य थे, जिनसे कुछ गलतियां हुई थीं। अब उसी की वजह से उन्हें इस जन्म में यह दुःख भोगना पड़ रहा है। ऋषि कौडिन्य ने अनंत भगवान से अपने पाप की क्षमा याचना की और अनंत चतुर्दशी व्रत करने का संकल्प लिया। इस व्रत के प्रभाव से उन्हें शीघ्र ही अपना खोया हुआ वैभव वापिस मिल गया।

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