क्या आप जानते हैं भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह की अद्भुत कथा? जानिए इस दिव्य मिलन की कथा और उससे जुड़ी धार्मिक मान्यताएं।
शिव-पार्वती विवाह कथा एक दिव्य प्रेम गाथा है। पार्वती ने कठोर तप कर शिव को पति रूप में प्राप्त किया। शिव ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर विवाह स्वीकार किया। उनका विवाह हिमालय पर्वत पर देवताओं की उपस्थिति में संपन्न हुआ।
भारत की पौराणिक कथाओं में भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक माना जाता है। यह कथा सिर्फ धर्म के नजरिए से ही नहीं, बल्कि अच्छे वैवाहिक जीवन के आदर्श के रूप में भी देखी जाती है। हिंदू धर्म में शिव और पार्वती के रिश्ते को प्रेम, त्याग, समर्पण और आध्यात्मिक एकता का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है। शादीशुदा महिलाएं माता गौरी और शिव-पार्वती की पूजा करके अपने पति की लंबी उम्र और खुशहाल शादीशुदा जीवन की प्रार्थना करती हैं।
वहीं कुंवारी लड़कियां शिव को आदर्श पति मानती हैं और उन्हें पाने के लिए सोमवार का व्रत, श्रावण महीना, शिवरात्रि और महाशिवरात्रि जैसे खास दिनों पर व्रत करती हैं। आज भी शिव-पार्वती की कथा को आदर्श दांपत्य जीवन के रूप में देखा जाता है, जहाँ प्रेम में स्वतंत्रता, सम्मान, धैर्य और समर्पण की भावना होती है। यह कथा हमें सिखाती है कि प्रेम और आस्था जब एक साथ चलते हैं, तब ईश्वर भी अपने निर्णय बदल देते है।
बहुत प्राचीन समय की बात है। माता पार्वती, हिमालय पर्वत के राजा हिमवान और रानी मेना की पुत्री थीं। बचपन से ही वे भगवान शिव की भक्ति में लीन थीं और उनकी दिव्यता को पूरी श्रद्धा से समझती थीं। जब उन्होंने यह जाना कि भगवान शिव एक योगी हैं, जो संसार से दूर रहकर तपस्या करते हैं और विवाह से दूर रहते हैं, तब भी उनका प्रेम और आस्था डगमगाए नहीं।
देवताओं ने जब सृष्टि के कल्याण के लिए शिव का विवाह आवश्यक समझा, तब ब्रह्माजी की कृपा से माता पार्वती का जन्म हुआ ताकि वह शिव को संसारिक जीवन से जोड़ सकें। माता पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने का निश्चय कर लिया और उसी उद्देश्य से उन्होंने कठोर तपस्या प्रारंभ कर दी। वे निरंतर शिव नाम का जाप करती रहीं, उपवास करतीं और ध्यान में लीन रहतीं। उस समय भगवान शिव भी गहन समाधि में लीन थे।
देवताओं ने पार्वती की तपस्या को सफल बनाने के लिए कामदेव को भेजा, ताकि वह शिव पर प्रेम बाण चलाकर उन्हें ध्यान से बाहर निकाल सकें। जब कामदेव ने प्रेम बाण चलाया, तो शिव की समाधि भंग हो गई। वे क्रोधित हो उठे और अपनी तीसरी आंख से कामदेव को भस्म कर दिया। लेकिन माता पार्वती के तप और समर्पण ने शिव का हृदय स्पर्श कर लिया।
शिव ने पार्वती की भक्ति की परीक्षा लेने के लिए ब्राह्मण का रूप धारण किया और उनके पास पहुँचे। वे बोले, "हे देवी, तुम इतनी सुंदर और गुणी हो, फिर भी एक ऐसे योगी से विवाह करना चाहती हो जो गृहस्थ जीवन से दूर रहता है, जो वनवासी है, और जिनके पास कोई वैभव नहीं। क्या यह तुम्हारे योग्य है?"
इस पर पार्वती ने विनम्रता से उत्तर दिया, "मैंने भगवान शिव को उनके तेज, त्याग, संयम और आध्यात्मिक शक्ति के कारण चुना है, न कि उनकी बाहरी स्थिति या रूप देखकर।" पार्वती की निष्ठा, स्पष्टता और गहराई से शिव अत्यंत प्रसन्न हो गए। उन्होंने अपना असली रूप प्रकट किया और पार्वती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लिया।
इसके बाद भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह अत्यंत भव्य रूप से सम्पन्न हुआ। इस दिव्य विवाह में सभी देवता, ऋषि-मुनि, गंधर्व और अप्सराएं शामिल हुए। समस्त प्रकृति और पंचमहाभूतों ने इस विवाह को सम्मान और आशीर्वाद प्रदान किया। यह विवाह केवल एक सांसारिक संबंध नहीं था, बल्कि शिव और शक्ति के अनंत, अपार और आध्यात्मिक मिलन का प्रतीक था। यह दिव्य संगम "शिवलिंग" और "शक्ति" के रूप में आज भी पूजनीय है और युगों-युगों तक इस प्रेम, तपस्या और समर्पण की कहानी को याद किया जाता है।
हिंदू धर्म में शिव और पार्वती के रिश्ते को सच्चे प्रेम, त्याग, एक-दूसरे के प्रति समर्पण और आध्यात्मिक जुड़ाव का सबसे उत्तम उदाहरण माना जाता है। आज भी शिव-पार्वती की कथा को आदर्श दांपत्य जीवन के रूप में देखा जाता है, जहाँ प्रेम में स्वतंत्रता, सम्मान, धैर्य और समर्पण की भावना होती है।
भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह प्रेम, तपस्या और आध्यात्मिक शक्ति का एक दिव्य संगम है। यह कथा हमें सिखाती है कि प्रेम में दृढ़ विश्वास होना चाहिए, अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए समर्पित रहना चाहिए, और यह भी कि अंततः सत्य और साधना से हमारे जीवन में दिव्य प्रकाश का प्रवेश होता है।
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