
क्या आप जानते हैं मेरु त्रयोदशी 2026 कब है? जानिए इस पवित्र व्रत की तिथि, पूजा विधि, मुहूर्त और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का रहस्य – सब कुछ एक ही जगह!
मेरु त्रयोदशी एक पवित्र उपवास और पूजा का दिन है, जिसे मार्गशीर्ष मास की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव और मेरु पर्वत के प्रतीक स्वरूप विशेष पूजा की जाती है। भक्त उपवास रखते हैं, शिव स्तुति का जाप करते हैं और सुख-समृद्धि तथा जीवन में स्थिरता की कामना करते हैं।
जैन धर्म में एक ऐसा व्रत है जिसे करने से संसार के सभी सुखों के साथ-साथ आत्मिक शांति की प्राप्ति होती है। उस व्रत का नाम है मेरू त्रयोदशी। ऐसा कहा जाता है, कि जो भी व्यक्ति यह व्रत सच्चे मन से करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। मगर क्या आप जानते हैं, कि ऐसा क्यों है? अगर नहीं, तो आज हम इस लेख में हम आपको इस व्रत से जुड़ी सभी जानकारी देंगे। मेरू त्रयोदशी जैन धर्म के महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक है। इस साल मेरू त्रयोदशी का शुभ मुहूर्त 16 जनवरी 2026, शुक्रवार को है।
मेरु त्रयोदशी भगवान ऋषभदेव (जिन्हें आदिनाथ भी कहते हैं) के मोक्ष प्राप्त करने का दिन है, जो जैन धर्म के चौबीस तीर्थंकरों में से पहले हैं। यह व्रत मोक्ष की इच्छा रखने वाले भक्तों के लिए बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को रखने से सांसारिक सुखों के साथ-साथ आध्यात्मिक शांति भी मिलती है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले भक्त इस दिन पांच मेरू का संकल्प पूरा करते हैं। इसमें एक बड़ा मेरू और उसके चारों ओर चार छोटे मेरू चांदी से बनाए जाते हैं और इनकी पूजा की जाती है।
मेरु त्रयोदशी पर भक्त सुबह जल्दी उठकर स्नान करते हैं और निर्जला (बिना कुछ खाए-पिए) व्रत रखते हैं। इस दिन ‘ऊं रं श्रीं आदिनाथ पारंगत्या नमः’ जैसे मंत्रों का जाप करने का विधान है। कुछ मान्यताओं के अनुसार, यह पर्व पिंग़ल कुमार की याद में भी मनाया जाता है, जो जैन धर्म के अनुयायी थे।
जैन कैलेंडर के अनुसार हर वर्ष मेरू त्रयोदशी पौश मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन मनाई जाती है। जैन धर्म का यह पर्व पिंगल कुमार की याद में मनाया जाता है। मेरू त्रयोदशी के दिन ही जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को निर्वाण प्राप्त हुआ था। तीर्थ की स्थापना करने वालों को तीर्थंकर कहा जाता है। जैन धर्म में तीर्थंकर की स्थापना मोक्ष प्राप्त करने के लिए की गई थी। भगवान ऋषभदेव को आदिनाथ भगवान भी कहते हैं। आदि का मतलब ‘प्रथम’ होता है और वह प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने धर्म जैन धर्म में तीर्थंकरों की रचना की थी।
मेरू त्रयोदशी व्रत भगवान ऋषभदेव को समर्पित है। मेरू त्रयोदशी कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। इस दिन भगवान शिव के मेरु (सुमेरु) स्वरूप की पूजा की जाती है। माना जाता है कि इस व्रत से भगवान शिव शांति, समृद्धि और रोग-शोक से मुक्ति का वरदान देते हैं। यह व्रत विशेष रूप से पुण्य, सौभाग्य, घर में सुख-शांति और धन-वृद्धि के लिए किया जाता है।
मेरू त्रयोदशी का पर्व पिंगल कुमार की याद में मनाया जाता है। जैन धर्म के अनुसार, पिंगल कुमार ने पांच मेरू का संकल्प लिया था। इस दौरान उन्होंने 20 नवाकारी के साथ ओम रहीम् श्रीम् आदिनाथ पारंगत्या नमः मंत्र का जाप किया था। मान्यता है, कि मेरु त्रयोदशी के दिन व्रत करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अगर भक्त 5 मेरू का संकल्प पूरा करे, तो वह पूर्ण रूप से मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। इसके अलावा, मेरु त्रयोदशी के दिन भगवान ऋषभदेव के निर्वाण प्राप्त करने का दिन भी है, जिस कारण इस दिन का महत्व और अधिक बढ़ जाता है।
जैन धर्म के प्राचीन ग्रंथों के अनुसार, कैवल्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए ऋषभदेव ने कई क्षेत्रों की पैदल यात्रा की थी। उस दौरान पैदल यात्रा करते वक़्त उन्हें अष्टपद पर्वत मिला। इस पर्वत पर आदिनाथ भगवान ने एक काल्पनिक गुफा का निर्माण किया। ऋषभदेव ने यहां लंबे अरसे तक तपस्या की और आखिर में कैवल्य ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया।
तो यह थी जैन धर्म के प्रमुख त्योहार मेरू त्रयोदशी की जानकारी। भारत के प्रमुख त्योहारों से जुड़ी ऐसी और रोचक जानकारियों के लिए जुड़े रहें श्री मंदिर के साथ।
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