सनातन धर्म में वैकुण्ठ चतुर्दशी का विशेष महत्व है और यह तिथि भगवान विष्णु को समर्पित है। हिंदू पंचांग के अनुसार, कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को वैकुण्ठ चतुर्दशी का पर्व मनाया जाता है। इस तिथि को लेकर एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है, जिसमें बताया गया है कि, जब भगवान विष्णु अपनी योगनिद्रा से जागते हैं, तो वे भगवान शिव की आराधना करने के लिए काशी नगरी पधारते हैं। वहां मणिकर्णिका घाट पर स्नान करने के बाद, वे संकल्प लेते हैं कि वे 1,000 स्वर्ण कमल के फूल भगवान शिव को अर्पित करेंगे। भगवान शिव उनकी भक्ति की परीक्षा लेने के लिए एक कमल का फूल छुपा देते हैं। जब भगवान विष्णु को एक फूल कम मिलता है, तो वे अपनी श्रद्धा और समर्पण दिखाने के लिए अपनी एक आंख को कमल के रूप में अर्पित करने का निश्चय कर लेते हैं। उनकी इस भावना को देख, भगवान शिव प्रकट होते हैं और उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं। भगवान विष्णु की अनन्य भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव उन्हें सुदर्शन चक्र प्रदान करते हैं और आशीर्वाद देते हैं कि जो भी भक्त इस दिन श्री हरि विष्णु की पूजा करेगा, वह मृत्यु के बाद सीधे बैकुंठ धाम में प्रवेश पाएगा।
इसी कारणवश वैकुण्ठ चतुर्दशी के पावन अवसर पर विशेष रूप से दक्षिण भारतीय मंदिरों में वैकुण्ठ दर्शन पूजा का आयोजन किया जाता है। यह पूजा उन्हें आत्मिक उन्नति का अवसर प्रदान करती है और भगवान विष्णु के आशीर्वाद से सांसारिक बंधनों से मुक्त होने का मार्ग खोलती है। यही कारण है कि वैकुण्ठ चतुर्दशी के शुभ अवसर पर दक्षिण भारत के एट्टेलुथुपेरुमल मंदिर में वैकुण्ठ दर्शन पूजा और कार्तिक दीप अलंकार का आयोजन किया जा रहा है। कार्तिक दीप अलंकार के तहत मंदिरों और घरों को दीपों से सजाया जाता है, जो अज्ञानता पर ज्ञान, अंधकार पर प्रकाश और बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। श्री मंदिर के माध्यम से इस विशेष अनुष्ठान में भाग लें और भगवान विष्णु द्वारा भौतिक और आध्यात्मिक सद्भाव दोनों का आशीर्वाद प्राप्त करें।