
गुरुवायुर एकादशी 2025: शुभ मुहूर्त, कथा और पूजा विधि जानें। इस पावन दिन का महत्व समझें!
गुरुवायुर एकादशी भगवान गुरुवायुरप्पन की कृपा प्राप्त करने का पावन दिन है। इस दिन भक्त उपवास रखकर मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना करते हैं। व्रत, भक्ति, दान और श्रीकृष्ण नामस्मरण से मन को शुद्धि और जीवन में शुभ फल प्राप्त होते हैं।
भारत के दक्षिण में स्थित अतिसुन्दर राज्य केरल में गुरुवायुर एकादशी का पर्व पूरी आस्था के साथ मनाया जाता है। मलयालम कैलेंडर के अनुसार गुरुवायुर एकादशी की तिथि वृश्चिक मास के शुक्ल पक्ष के ग्यारहवें दिन होती है। यह एकादशी 41 दिनों तक चलने वाले प्रसिद्ध मंडला पूजा उत्सव के दौरान आती है।
इस प्रकार, इस वर्ष गुरुवायुर एकादशी 01 दिसम्बर 2025, सोमवार को मनाई जाएगी।
मुहूर्त | समय |
ब्रह्म मुहूर्त | 04:40 ए एम से 05:33 ए एम |
प्रातः सन्ध्या | 05:07 ए एम से 06:27 ए एम |
अभिजित मुहूर्त | 11:26 ए एम से 12:08 पी एम |
विजय मुहूर्त | 01:34 पी एम से 02:17 पी एम |
गोधूलि मुहूर्त | 05:05 पी एम से 05:32 पी एम |
सायाह्न सन्ध्या | 05:07 पी एम से 06:27 पी एम |
अमृत काल | 09:05 पी एम से 10:34 पी एम |
निशिता मुहूर्त | 11:21 पी एम से 12:14 ए एम, दिसम्बर 02 |
गुरुवायुर एकादशी, केरल के गुरुवायुर श्रीकृष्ण मंदिर की प्रमुख एकादशियों में से एक है। इस दिन—
भक्त अपने-अपने सामर्थ्य और परंपरा के अनुसार पूजा कर सकते हैं -
द्वादशी तिथि में शुभ मुहूर्त पर व्रत तोड़ा जाता है -
गुरुवायुर एकादशी 2025 भक्तिभाव, आध्यात्मिक शांति और प्रभु श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करने का अत्यंत शुभ अवसर है। इस दिन किया गया व्रत, पूजा, जप, दान और भक्ति - सैकड़ों गुना फल देता है।
केरल के प्रसिद्ध गुरुवायुर कृष्ण मन्दिर में गुरुवायुर एकादशी को बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस एकादशी पर उदयस्थमन पूजा अर्थात सुबह से शाम तक की जाने वाली पूजा, देवस्वोम द्वारा ही आयोजित की जाती है। दक्षिण भारत विशेषतः केरल में गुरुवायुर एकादशी पर सुबह की सीवेली (एक छोटी सी पूजा) के बाद, पार्थसारथी मंदिर में हाथियों का एक भव्य जुलूस निकाला जाता है। इस दिन को गीतोपदेशम दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। इस तिथि पर रात्रि में पूजा करने के बाद जुलूस के साथ ही दीपदान किया जाता है, जिसे एकादशी विलक्कू कहते हैं। इसी के साथ इस उत्सव का समापन होता है।
इस दिन मंदिरों में जाकर निर्माल्य दर्शन किया जाता है, जो सुबह 3 बजे से शुरू होकर अगले दिन अर्थात द्वादशी तिथि पर सुबह 9 बजे तक होता है। द्वादशी के दिन मंदिरों में द्वादशी पानम नाम से अपनी क्षमता के अनुसार धन चढ़ाने की भी परंपरा है।
द्वारिकापुरी में एक विशिष्ट मूर्ति थी, जिसे श्री हरि विष्णु ने ब्रह्माजी को दिया था। इस दिव्य मूर्ति का प्राचीन इतिहास कुछ इस प्रकार है- एक समय महाराज सुतपा और उनकी रानी ने पुत्र प्राप्ति के लिए ब्रह्माजी की आराधना की, जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने वह मूर्ति महाराज सुतपा को प्रदान कर दी, और उनसे इस मूर्ति की नियमित उपासना करने को कहा। महाराज इस मूर्ति की पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करने लगे। इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया कि ‘आपकी रानी के गर्भ से मैं स्वयं विष्णु कई रूपों में जन्म लूंगा।’ अगले जन्म में इन्हीं राजा सुतपा और उनकी रानी ने राजा कश्यप और रानी अदिति के नाम से जन्म लिया। इस समय भगवान विष्णु इनके घर बावन रूप में जन्में।
इसके बाद फिर अगले जन्म में सुतपा वासुदेव के रूप में जन्में। उनकी पत्नी देवकी के गर्भ से कृष्ण का जन्म हुआ। कंस का वध करने के पश्चात् इस प्राचीन मूर्ति को वासुदेव ने धौम्य ऋषि को प्रदान कर दिया। ऋषि धौम्य ने इस मूर्ति को द्वारिका में प्रतिष्ठापित किया। काफी समय बाद एक बार श्री कृष्ण ने अपने मित्र उद्धव को देव गुरु बृहस्पति के पास एक विशिष्ट संदेश लेकर भेजा। संदेश यह था कि द्वारिकापुरी शीघ्र ही समुद्र में जलमग्न होने वाली है। उस समय वह मूर्ति वहीं विराजमान थी। भगवान कृष्ण ने उद्धव को बताया कि वह मूर्ति असाधारण है, और कलियुग में यह मेरे भक्तों के लिए अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध होगी।
जब देवगुरु बृहस्पति कृष्ण का संदेश पाकर द्वारिका पहुंचे, तब तक द्वारिका समुद्र में डूब चुकी थी। देवगुरु बृहस्पति ने वायुदेव की सहायता से इस मूर्ति को समुद्र से निकाला, तथा इसे स्थापित करने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज शुरू की। वर्तमान समय में यह मूर्ति केरल में स्थापित है। कहा जाता है कि जिस मंदिर में यह मूर्ति स्थापित हुई, वहां एक सुंदर झील थी। इस झील के तट पर भगवान शिव अपनी अर्धांगिनी पार्वती के साथ जल क्रीड़ा किया करते थे। शिव से आज्ञा प्राप्त करके ही बृहस्पति जी ने उस प्राचीन मूर्ति की स्थापना यहां की थी। चूंकि केरल में उस पवित्र स्थान पर गुरु और वायु देव ने इस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की, इसलिए इसका नाम गुरुवायूर पड़ा।
केरल बहुत सुन्दर राज्य है, और वहां स्थित इस मंदिर की महिमा भी दिव्य है। यदि कभी अवसर मिले तो जीवन में एक बार इस मंदिर के दर्शन अवश्य करें। यदि किसी कारण से आप यह नहीं कर पाएं तो इस दिन श्री मंदिर के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण को सच्चे मन से चढ़ावा अर्पित करें। इस चढ़ावा सेवा के माध्यम से आप घर बैठे अपने और अपने परिवार के नाम से भारत के कुछ प्रसिद्ध कृष्ण मंदिर जैसे कि वृंदावन में श्री बांके बिहारी मंदिर और गोवर्धन के गिरिराज मुखारविंद मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण को चढ़ावा अर्पित कर सकते हैं।
तो दोस्तों! गुरुवायुर एकादशी के पावन दिन पर आप हमारी इस सेवा का लाभ अवश्य उठाएं और चढ़ावे के रूप में चुनरी, भोग, दूध, पुष्प और द्वादशी पानम आदि समर्पित कर अपने परिवार के लिए प्रभु की कृपा प्राप्त करें।
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