क्या आप जानते हैं ब्रह्मचारिणी माता किसका प्रतीक मानी जाती हैं और उनके पूजन से भक्तों को कौन से आध्यात्मिक व सांसारिक लाभ प्राप्त होते हैं? यहाँ पढ़ें पूरी जानकारी सरल शब्दों में।
माँ ब्रह्मचारिणी का प्रतीक तपस्या और संयम है। उनके हाथ में जपमाला और कमंडल रहता है, जो साधना, ज्ञान और वैराग्य का द्योतक है। वे कठिन तप से शक्ति अर्जित करने वाली देवी हैं और धैर्य व आत्मबल की प्रतीक मानी जाती हैं।
मां ब्रह्मचारिणी देवी दुर्गा का दूसरा स्वरूप हैं, जिनकी पूजा नवरात्रि के दूसरे दिन श्रद्धापूर्वक की जाती है। ब्रह्मचारिणी शब्द का अर्थ है तप का आचरण करने वाली, अर्थात वह देवी जो तप, संयम और त्याग की प्रतिमूर्ति हैं। माता ब्रह्मचारिणी पर्वतराज हिमालय और रानी मैना की पुत्री हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, नारद जी के उपदेश पर उन्होंने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए घोर तपस्या का मार्ग चुना।
माता ने हजारों वर्षों तक कठिन तप किए पहले केवल फल-फूल खाए, फिर लंबे समय तक शाकाहार पर निर्वाह किया और अंत में पत्तों और अन्न का त्याग कर निराहार रहकर तपस्या की। उनकी कठिन तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यंत क्षीण हो गया, परंतु उनके मन में दृढ़ संकल्प और अटूट श्रद्धा बनी रही। उनकी साधना से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया और भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने का वरदान प्रदान किया। भक्तों के लिए मां ब्रह्मचारिणी त्याग, संयम, सदाचार और वैराग्य की प्रतीक मानी जाती हैं। श्रद्धापूर्वक उनकी आराधना करने से जीवन के कठिन संघर्षों में भी मनुष्य का मन विचलित नहीं होता और उसे सफलता, सुख, शांति तथा मोक्ष की प्राप्ति होती है।
मां ब्रह्मचारिणी, देवी दुर्गा का दूसरा स्वरूप, तप, संयम और आत्मिक शक्ति की अद्वितीय प्रतीक हैं। “ब्रह्म” शब्द यहां तप, ज्ञान और परम सत्य का द्योतक है, जबकि “चारिणी” का अर्थ है आचरण करने वाली। इस प्रकार मां ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ वह देवी जो स्वयं कठोर तप का आचरण करती हैं और भक्तों को तपस्या, संयम तथा आत्मबल की प्रेरणा देती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, मां ब्रह्मचारिणी की उपासना करने से साधक में सदाचार, त्याग, वैराग्य और आत्मसंयम की भावना प्रबल होती है।
यह देवी उस दिव्य शक्ति का प्रतीक हैं जो कठिनाइयों के बावजूद अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होती। उनके दाएं हाथ में जप की माला है, जो साधना, ध्यान और एकाग्रता का प्रतीक है, जबकि बाएं हाथ में कमंडल है, जो संयम, सरलता और आध्यात्मिक पवित्रता का द्योतक है। माता ब्रह्मचारिणी का यह स्वरूप हमें सिखाता है कि जीवन के संघर्षों और कठिन परिस्थितियों में धैर्य और आत्मविश्वास बनाए रखना चाहिए। उनकी कृपा से भक्त को आत्मबल, मानसिक स्थिरता और दिव्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। वे यह संदेश देती हैं कि तप, श्रद्धा और संयम के साथ किया गया प्रयास अवश्य सफल होता है और भक्ति के मार्ग पर चलकर आत्मिक आनंद तथा मोक्ष की प्राप्ति संभव है।
मां ब्रह्मचारिणी से जुड़ी धार्मिक और पौराणिक मान्यताएँ अत्यंत प्राचीन और प्रेरणादायी हैं। देवी दुर्गा का दूसरा स्वरूप मानी जाने वाली मां ब्रह्मचारिणी पर्वतराज हिमालय और मैना की पुत्री हैं। कथा के अनुसार, जब नारद जी ने उन्हें बताया कि भगवान शिव ही उनके भावी पति हैं, तब माता ने कठोर तपस्या करने का संकल्प लिया। वे वर्षों तक तप में लीन रहीं पहले हजार वर्षों तक केवल फल-फूल खाए, फिर सौ वर्षों तक शाकाहार पर निर्वाह किया। इसके बाद उन्होंने कई हजार वर्षों तक टूटे हुए बेलपत्र खाए और भगवान शिव की आराधना में लीन रहीं।
अंत में उन्होंने बेलपत्र, फल, फूल और अन्न का भी त्याग कर दिया और निर्जल, निराहार रहकर भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। इस तपस्या के कारण उनका शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया, किंतु उनकी साधना अटूट रही। इस कठिन तप से प्रसन्न होकर सभी देवता, ऋषि, सिद्ध और मुनियों ने उनकी साधना की सराहना की और उन्हें ‘तपश्चारिणी’ कहा। ब्रह्मा जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया कि भगवान शिव उनके पति बनेंगे। इन्हीं की कठोर तपस्या के कारण उनका नाम अपर्णा भी पड़ा, क्योंकि उन्होंने पत्तों तक का सेवन त्याग दिया था। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, जो साधक मां ब्रह्मचारिणी की उपासना करते हैं, उन्हें जीवन में तप, संयम, सदाचार और वैराग्य की शक्ति प्राप्त होती है। उनकी कृपा से भक्त को आत्मिक आनंद, दिव्य ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति होती है। नवरात्रि के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा करने से साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में स्थित होकर भक्ति और तपस्या की दिव्यता का अनुभव करता है।
नवरात्रि का दूसरा दिन मां दुर्गा के ब्रह्मचारिणी स्वरूप की पूजा-अर्चना के लिए समर्पित होता है। “ब्रह्मचारिणी” शब्द का अर्थ है तप का आचरण करने वाली, और यहां “ब्रह्म” का अर्थ है तपस्या। देवी का यह रूप त्याग, संयम, सदाचार और वैराग्य की प्रतिमूर्ति माना जाता है। मां ब्रह्मचारिणी पर्वतराज हिमालय और रानी मैना की पुत्री हैं, जिन्होंने देवर्षि नारद जी के उपदेश पर भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या की थी। हजारों वर्षों तक उन्होंने फल, शाक, बेलपत्र और अन्न तक का त्याग कर निर्जल व निराहार रहकर भगवान शिव की आराधना की।
माता ब्रह्मचारिणी की पूजा नवरात्रि में विशेष महत्व रखती है क्योंकि यह साधक को आंतरिक शक्ति, आत्मविश्वास और संयम प्रदान करती है। उनकी आराधना करने से भक्त के जीवन में वैराग्य, ज्ञान और सात्विकता की वृद्धि होती है। देवी के दाहिने हाथ में जप की माला है, जो साधना, ध्यान और एकाग्रता का प्रतीक है, जबकि बाएं हाथ में कमंडल है, जो त्याग और संयम का द्योतक है। नवरात्रि के इस दिन भक्त स्वाधिष्ठान चक्र में ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे मन और आत्मा में दिव्यता आती है। माता की कृपा से सभी प्रकार की बाधाएं दूर होती हैं, जीवन में सुख, शांति और आत्मिक संतोष की प्राप्ति होती है।
नवरात्रि का दूसरा दिन मां ब्रह्मचारिणी की आराधना के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। देवी का यह स्वरूप तप, त्याग, संयम और सदाचार की प्रतिमूर्ति है, जो भक्तों को आंतरिक शक्ति और आत्मविश्वास प्रदान करता है। उनकी उपासना से जीवन में आने वाली सभी कठिनाइयां और बाधाएं दूर होती हैं। श्रद्धापूर्वक की गई पूजा से भक्त के भीतर सात्विकता का संचार होता है और उसका मन दिव्यता से परिपूर्ण हो जाता है।
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