जानें गणेश चतुर्थी और गौरी पूजा का महत्व, व्रत का रहस्य और पूजन की संपूर्ण विधि, जिससे पूरी हों हर मनोकामनाएं और मिले सुख-समृद्धि।
गणेश चतुर्थी भगवान गणेश के जन्मोत्सव के रूप में मनाई जाती है, जिसमें भक्त उन्हें मोदक और पूजा अर्पित करते हैं। गौरी पूजा में मां गौरी का स्वागत कर सौभाग्य और समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। दोनों पर्व घर-घर में हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं।
गणेश चतुर्थी हिन्दू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है, जो भगवान गणेश के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व हर साल भाद्रपद महीने की चतुर्थी तिथि से शुरू होता है, जो आमतौर पर अगस्त या सितंबर में आता है, और 10 दिनों तक चलता है। भगवान गणेश को बुद्धि, समृद्धि और शुभ कार्यों के देवता माना जाता है।
कोई भी शुभ काम शुरू करने से पहले सबसे पहले उनकी पूजा की जाती है। उनके नाम के दो अर्थ होते हैं - “गणों के स्वामी” और “जनता के भगवान।” वे भगवान शिव के गणों के प्रमुख भी माने जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन 10 दिनों के दौरान भगवान गणेश स्वयं पृथ्वी पर आते हैं और अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। इसलिए, जिन घरों में गणेश जी की मूर्ति स्थापित की जाती है, वहां उन्हें घर के सम्मानित अतिथि की तरह पूजा जाता है, उनकी सेवा की जाती है, और विशेष ध्यान रखा जाता है।
गणेश चतुर्थी की तैयारियाँ महीनों पहले शुरू हो जाती हैं, जब कारीगर विभिन्न आकारों की मिट्टी की गणेश मूर्तियाँ बनाते हैं। ये मूर्तियाँ खास सजाए गए पंडालों या घरों में स्थापित की जाती हैं। त्योहार की शुरुआत के दिन, भक्त "गणपति बप्पा मोरया" के जयकारों के साथ मूर्ति घर लाते हैं। इसके बाद एक खास पूजा होती है जिसे प्राण प्रतिष्ठा कहा जाता है, जिसमें मंत्रोच्चार के साथ भगवान गणेश की मूर्ति में पवित्र ऊर्जा का आह्वान किया जाता है। पूरे 10 दिनों तक प्रतिदिन पूजा और आरती होती है। मिठाइयाँ, फूल, नारियल, चावल और अन्य चीजें भगवान को अर्पित की जाती हैं। उत्सव का अंतिम दिन, जिसे अनंत चतुर्दशी कहा जाता है, बहुत ही भव्य होता है, जब मूर्ति को विसर्जन के लिए जल में ले जाया जाता है।
गौरी पूजन एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें महिलाएं श्रद्धा से मां पार्वती (गौरी माता) की पूजा करती हैं। यह त्योहार विशेष रूप से महाराष्ट्र में, गणेश चतुर्थी के चौथे या पांचवें दिन मनाया जाता है। इसे कुछ जगहों पर गौरी हब्बा या मंगला गौरी व्रत भी कहा जाता है। इस पूजा में पहले दिन देवी का आवाहन और प्रतिष्ठा, दूसरे दिन मुख्य पूजा, और तीसरे दिन विदाई की जाती है। गौरी पूजन का उद्देश्य सुख, समृद्धि और सौभाग्य की कामना करना होता है। मान्यता है कि मां गौरी की कृपा से घर में खुशहाली, विवाह में सफलता, और पति-पत्नी के रिश्तों में मजबूती आती है। कुंवारी लड़कियाँ भी इसे मनचाहा और योग्य जीवनसाथी पाने के लिए करती हैं।
गौरी पूजन को कई स्थानों पर "गौरी आवाहन" या "हरतालिका तीज" के नाम से भी जाना जाता है। इस अवसर पर महिलाएं गौरी माता की मूर्ति को सजे-धजे रूप में घर लाती हैं। वे हल्दी-कुमकुम, साज-श्रृंगार और व्रत करती हैं, और पूरी श्रद्धा से पूजा करती हैं।
गणेश चतुर्थी और गौरी पूजा के बीच गहरा धार्मिक और पारिवारिक संबंध है। ये दोनों पर्व एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और विशेष रूप से महाराष्ट्र व दक्षिण भारत में साथ-साथ मनाए जाते हैं। चलिए, जानते हैं इन दोनों पूजाओं के बीच की गहरी और सुंदर धार्मिक कड़ी को।
पारिवारिक संबंध : - गौरी माता (पार्वती) भगवान गणेश की माता हैं। मान्यता है कि वे गणेश से मिलने कुछ दिनों के लिए उनके घर आती हैं। इसलिए गणेश चतुर्थी के दौरान गौरी पूजन को मां के रूप में उनका स्वागत माना जाता है।
पूजा का क्रम : - गणेश चतुर्थी पर पहले भगवान गणेश की स्थापना होती है, और चौथे या पांचवें दिन गौरी पूजन किया जाता है। कई घरों में दोनों की मूर्तियाँ एक साथ लाई जाती हैं, जो घर में शुद्धता, प्रेम और पारिवारिक सुख का प्रतीक होती हैं।
प्रतीकात्मक संबंध : - गणेश जी को शुभारंभ और बुद्धि का देवता माना जाता है। गौरी माता को शक्ति, सौभाग्य और समृद्धि की देवी माना जाता है। गौरी माता को शक्ति, सौभाग्य और समृद्धि की देवी माना जाता है।
सांस्कृतिक परंपरा:- महाराष्ट्र और कर्नाटक में यह परंपरा बेहद आम है कि गणेश चतुर्थी के दौरान गौरी पूजन भी होता है।महिलाएं विशेष रूप से गौरी पूजन करती हैं और पुरुष गणपति की सेवा करते हैं — यह पारिवारिक सहभागिता का सुंदर उदाहरण है।
गणेश चतुर्थी और गौरी पूजा एक-दूसरे के पूरक पर्व है। जहां एक ओर पुत्र गणेश की आराधना होती है, वहीं दूसरी ओर मां गौरी का सम्मान किया जाता है। ये दोनों पर्व मिलकर हमें परिवार, श्रद्धा और सांस्कृतिक परंपराओं का महत्व सिखाते हैं।
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