मत्स्य अवतार

मत्स्य अवतार

भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार


क्या मत्स्य अवतार थी सतयुग की शुरुआत?

भगवान विष्णु के दशावतारों में हम आपको उनके मत्स्य अवतार के बारे में बताने जा रहे हैं। प्रभु ने सतयुग में मत्स्य अवतार के रूप में पृथ्वी पर धर्म की पुनः स्थापना की थी। पृथ्वी को घोर प्रलय से बचाने के लिए प्रभु का इस रूप में अवतरण हुआ था। मत्स्य का अर्थ है मछली। सतयुग में प्रभु ने सृष्टि की रक्षा के लिए मछली का रूप धारण किया था।

इस अवतार के पीछे की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार द्रविड़ देश के राजा, सत्यव्रत कृतमाला नदी में स्नान करने गए थे। स्नान पूर्ण करने के पश्चात जब राजन अंजली में जल भर कर तर्पण करने लगे, तब उन्होंने देखा कि उनकी अंजली के जल में एक छोटी सी मछली भी आ गई है।

तब उन्होंने उस मछली को नदी के जल में बहा देने का मन बनाया, परंतु जैसे ही वह ऐसा करने लगे अचानक से वह मछली बोली, “हे राजन! मुझे नदी में कोई कोई बड़ा जीव मारकर खा जाएगा। कृपया मुझे अपने साथ ले चलें।” मछली की विनती सुन सत्यव्रत को उस पर दया आई और वह उसे अपने साथ घर ले आए और वहां उसे एक छोटे से कमंडल में रख दिया |

लेकिन एक रात में ही उस मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि वह उस कमंडल में समा नहीं पा रही थी। तब राजा ने उसे थोड़े और बड़े पात्र में डाल दिया, लेकिन फिर मछली का शरीर उस पात्र से बड़ा हो गया। अब राजन रोज उस मछली को एक नए बड़े पात्र में रखते और मछली के शरीर वृद्धि का सिलसिला जारी रहता।

अंततः एक दिन राजन ने उसे सरोवर में छोड़ आना ही उचित समझा, लेकिन वह सरोवर भी अब उस मछली के शरीर के सामने छोटा पड़ गया। यह चमत्कारी घटना देखकर राजा सत्यव्रत समझ गए कि यह मछली कोई साधारण मछली नहीं है और तब उन्होंने हाथ जोड़कर उस मछली से अपना वास्तविक स्वरूप दिखाने को कहा |

तब राजा सत्यव्रत के सामने भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और प्रभु ने बताया कि कैसे एक दैत्य ने प्रजापति ब्रह्मा की असावधानी का लाभ उठाते हुए वेदों को चुराकर जल में डाल दिया है। इसके कारण समस्त पृथ्वी पर अज्ञान का अंधकार फैला हुआ है। प्रभु ने यह भी बताया कि इस दैत्य हयग्रीव को मारने के लिए ही उन्होंने मत्स्य का रूप धारण किया है।

परमपिता ने सत्यव्रत से कहा, “आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय के चक्र में फिर जाएगी। समुद्र उमड़ उठेगा। भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होगा। तब आपके पास एक नाव पहुंचेगी जिस पर आप सभी अनाजों और औषधियों के बीजों को लेकर सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ जाइएगा। मैं उसी समय आपको पुनः दर्शन दूंगा और आपको आत्मतत्त्व का ज्ञान प्रदान करूंगा।"

बस फिर क्या था, राजा सत्यव्रत उसी दिन से श्री हरि का स्मरण करते हुए प्रलय की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन प्रलय का दृश्य उपस्थित हो उठा और समुद्र भी उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। इसके साथ ही, भयानक वृष्टि होने लगी एवं थोड़ी ही देर में सारी पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। संपूर्ण पृथ्वी जल में समा गई।

उसी समय राजा को एक नाव दिखाई पड़ी और बिना कोई विलंब किए सत्यव्रत सप्त ऋषियों के साथ उस नाव पर बैठ गए। उन्होंने नाव के ऊपर संपूर्ण अनाजों और औषधियों के बीज भी भर लिए। इसके बाद, वह नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। प्रलय के उस सागर में उस नाव के अतिरिक्त कहीं भी कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था।

सहसा मत्स्य रूपी भगवान प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। सत्यव्रत और सप्त ऋषि गण मतस्य रूपी भगवान की प्रार्थना करने लगे, “हे प्रभु! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक हैं और आप ही रक्षक हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।” सत्यव्रत और सप्त ऋषियों की प्रार्थना पर मत्स्य रूपी भगवान प्रसन्न हो उठे और उन्होंने अपने वचन के अनुसार सत्यव्रत को आत्मज्ञान प्रदान किया।

प्रभु ने बताया- “सभी प्राणियों में मैं ही निवास करता हूं। न कोई ऊंचा है और न ही नीचा। सभी प्राणी एक समान हैं। सत्यव्रत यह जगत नश्वर है। इस नश्वर जगत में मेरे अतिरिक्त कहीं और कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सब में देखता हुआ अपना जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही समा जाता है।”

मत्स्य रूपी श्री हरि से आत्मज्ञान पाकर सत्यव्रत का जीवन धन्य हो उठा। वह जीते जी ही जीवन से मुक्त हो गए। इस प्रलय का प्रकोप शांत होने पर मत्स्य रूपी भगवान ने हयग्रीव दैत्य का वध कर समस्त वेदों को उद्धार करते हुए उन्हें ब्रह्मा को दे दिया।

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