भगवान जगन्नाथ खुद निकलते हैं भक्तों के बीच! क्यों है ये रथ यात्रा इतनी खास? जानिए पूरी कहानी और बनिए इस आस्था के पर्व का हिस्सा।
जगन्नाथ रथ यात्रा उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की वार्षिक यात्रा है। इस दिन तीनों भाई-बहन विशाल रथों पर सवार होकर गुंडिचा मंदिर जाते हैं। यह आस्था और भक्ति का पर्व है। आइये जानते हैं इसकी कथा के बारे में...
जगन्नाथ रथ यात्रा सनातन धर्म की एक ऐसी अनोखी परंपरा है, जिसमें भगवान स्वयं मंदिर से बाहर आकर अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। हर साल ओडिशा के पुरी शहर में आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथ अपने बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ रथों पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं। यह यात्रा मंदिर से करीब तीन किलोमीटर दूर उनकी मौसी के घर, जिसे गुंडिचा मंदिर कहा जाता है, तक जाती है।
इस दिन रथों की रस्सियाँ खींचने के लिए भक्तों की भारी भीड़ उमड़ पड़ती है, क्योंकि मान्यता है कि भगवान के रथ को खींचने से हजार यज्ञों जितना पुण्य प्राप्त होता है। इस समय पूरा पुरी शहर भक्ति और उत्साह से भर जाता है। भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी लाखों श्रद्धालु इस पवित्र यात्रा में भाग लेने के लिए पुरी पहुंचते हैं और भगवान के साक्षात दर्शन कर अपने जीवन को धन्य मानते हैं।
पुराणों में वर्णन है कि ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ का प्राकट्य दिवस होता है। इस दिन उन्हें रत्नसिंहासन से उतारकर बलराम और सुभद्रा के साथ स्नान मंडप में ले जाया जाता है, जहाँ उनका 108 कलशों से महाअभिषेक किया जाता है। इस शाही स्नान के बाद यह माना जाता है कि भगवान को ज्वर हो जाता है, और वे 15 दिनों तक ‘ओसर घर’ में विश्राम करते हैं।
इन 15 दिनों में कोई भी भक्त भगवान के दर्शन नहीं कर सकता। जब भगवान पूर्णतः स्वस्थ होते हैं, तब नवयौवन नैत्र उत्सव के रूप में उनका पुनः प्रकट होना होता है। अगले ही दिन से शुरू होती है रथ यात्रा। माना जाता है कि इस समय भगवान जगन्नाथ स्वयं भक्तों के बीच आते हैं, प्रेम लुटाते हैं और नगर भ्रमण करते हैं।
जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत को लेकर भक्तों और विद्वानों में अलग-अलग मान्यताएं हैं। एक ऐतिहासिक मत के अनुसार, उड़ीसा के राजा रामचंद्रदेव ने एक विदेशी स्त्री से विवाह किया और इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इसके चलते उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली। लेकिन वे भगवान जगन्नाथ के सच्चे भक्त थे। तब भगवान ने स्वयं नगर भ्रमण कर राजा को दर्शन देने की परंपरा शुरू की, जो रथ यात्रा के रूप में आज तक जीवित है।
दूसरी लोकप्रिय कथा में ये वर्णन मिलता है कि भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा जी ने एक दिन पुरी नगर घूमने की इच्छा जताई। तब श्रीकृष्ण (जगन्नाथ) और बलराम ने उन्हें रथ पर बैठाकर नगर दर्शन कराया। इसी घटना की स्मृति में हर वर्ष यह यात्रा निकाली जाती है, जिसमें तीनों भाई-बहन सजीव मूर्तियों के रूप में रथ पर चढ़कर भक्तों के बीच आते हैं।
मान्यता है कि जब द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार हो रहा था, तब उनके बड़े भाई बलराम यह दृश्य देखकर अत्यंत दुखी हो गए। वे भगवान श्रीकृष्ण के पार्थिव शरीर को लेकर समुद्र की ओर चल पड़े और उसमें डूब जाने का निश्चय कर लिया। अपनी भाई-बहन के प्रति प्रेमवश देवी सुभद्रा भी उनके पीछे-पीछे चल दीं। उसी समय, पूर्वी भारत में उड़ीसा के राजा इंद्रद्युम्न को एक स्वप्न दिखा।
स्वप्न में राजा ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण का पार्थिव शरीर पुरी के तट पर तैरता हुआ मिलेगा। उन्हें यह आदेश भी मिला कि वे एक भव्य मंदिर का निर्माण कराएं और उसमें भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियाँ स्थापित करें। साथ ही यह भी कहा गया कि भगवान की अस्थियाँ उनकी मूर्ति के भीतर एक खोखली जगह में सुरक्षित रखी जाएं।
राजा इंद्रद्युम्न को वास्तव में समुद्र के किनारे भगवान की अस्थियाँ प्राप्त हुईं और उन्होंने तुरंत मंदिर निर्माण का कार्य प्रारंभ करवाया। लेकिन अब प्रश्न था कि इन दिव्य मूर्तियों को बनाएगा कौन? तभी एक वृद्ध बढ़ई के रूप में भगवान विश्वकर्मा जी स्वयं वहां आए। उन्होंने राजा से वचन लिया कि मूर्ति निर्माण के दौरान उन्हें कोई टोकेगा नहीं, अन्यथा वे अधूरा काम छोड़कर चले जाएंगे।
इधर, जब कई सप्ताह बीत गए, तो राजा मूर्ति देखने के लिए उत्सुक हो उठे, और उन्होंने द्वार खुलवा दिया। जैसा कि चेतावनी दी गई थी, विश्वकर्मा जी कार्य अधूरा छोड़कर चले गए। मूर्तियाँ हाथ-पैर के बिना अधूरी रह गईं, लेकिन राजा ने उन्हें ही भगवान का साक्षात स्वरूप मानकर मंदिर में स्थापित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण की अस्थियाँ भी उनकी मूर्ति के भीतर बनी एक विशेष खोखली जगह में रख दी गईं। हर 12 से 14 वर्षों में इन मूर्तियों को बदला जाता है, जिसे 'नवकलेवर' उत्सव’ कहते हैं। लेकिन इन अस्थियों को ससम्मान नई मूर्तियों में स्थानांतरित कर दिया जाता है।
इस यात्रा में तीन दिव्य रथ होते हैं, जो खास नीम की लकड़ी से हर साल अक्षय तृतीया से बनाए जाते हैं। सबसे खास बात यह है कि इन रथों को जोड़ने में न कील लगती है, न कोई धातु। ये केवल लकड़ी का प्रयोग करके बनाए जाते हैं। हर रथ की अपनी अलग पहचान और रंग होता है:
बलराम जी का रथ नीले रंग का होता है और इसकी ऊँचाई लगभग 44 फीट होती है। यह रथ यात्रा में सबसे आगे चलता है, क्योंकि बलराम जी को बड़े भाई और मार्गदर्शक का स्थान प्राप्त है।
सुभद्रा जी का रथ काले रंग का होता है और इसकी ऊँचाई लगभग 43 फीट होती है। यह रथ बीच में चलता है, दोनों भाइयों की सुरक्षा में।
भगवान जगन्नाथ जी का रथ लाल और पीले रंग का होता है। इसकी ऊँचाई लगभग 45 फीट होती है और इसमें 16 पहिए होते हैं। यह रथ सबसे बड़ा होता है और रथ यात्रा में सबसे पीछे चलता है। इस पर हनुमान जी और नृसिंह भगवान के प्रतीक चिह्न अंकित होते हैं, जो रक्षक शक्ति के प्रतीक हैं।
तो ये थी ‘जगन्नाथ रथ यात्रा’ से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण और रोचक जानकारी। अगर आपको कभी जीवन में अवसर मिले, तो इस रथ यात्रा में जरूर भाग लें या इसका दर्शन करें। कहा जाता है कि ‘lजगन्नाथ रथ यात्रा के दर्शन मात्र से ही जन्मों के पाप कट जाते हैं और सभी तीर्थों, यज्ञों और वर्षों की तपस्या के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।
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