आदित्य-हृदय स्तोत्र

आदित्य-हृदय स्तोत्र

पढ़ें ये स्तोत्र मिलेगा आँखों की समस्यों से छुटकारा


आदित्य-हृदय स्तोत्र (Aditya-Hridaya Stotra)

आदित्य-हृदय स्तोत्र अगस्त्य ऋषि द्वारा रचित है। सूर्य देव को समर्पित यह स्त्रोत बुद्धि और शक्ति का संचार करता है। यह स्त्रोत अगस्त्य ऋषि द्वारा भगवान श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति के लिए दिया गया था। आदित्य हृदय स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से जीवन के अनेक कष्टों का निवारण होता है। इस स्तोत्र में सूर्य देव की निष्ठापूर्वक उपासना करते हुए उनसे विजयी मार्ग पर ले जाने के लिए विनती की गई है।

आदित्य-हृदय स्तोत्र का महत्व (Importance of Aditya-Hridaya Stotra)

आदित्य-हृदय स्तोत्र एकमात्र ऐसा स्त्रोत है जिसके नियमित पाठ से हृदय रोग, मानसिक कष्ट, शत्रु कष्ट, असफलताओं और तनाव पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। आदित्य हृदय स्तोत्र सभी प्रकार के कष्टों, शत्रुओं और पापों से मुक्ति कराने वाला सर्व कल्याणकारी स्त्रोत है। यह स्त्रोत प्रतिष्ठा में वृद्धि करने वाला अति मंगलकारी भी है। इस स्तोत्र को सुनने के बाद ही भगवान राम ने रावण से युद्ध किया और विजयी हुए।

आदित्य-हृदय स्तोत्र पढ़ने के फायदे (Benefits of reading Aditya-Hridaya Stotra)

  • ऐसा माना गया है कि सूर्य ग्रह की स्थिति जिस भी व्यक्ति की कुंडली में प्रबल होती है। उसे मान-सम्मान, प्रतिष्ठा आदि प्राप्त होता है। क्योंकि सूर्य देव को प्रसिद्ध, प्रतिष्ठा आदि का कारक माना जाता है। इसलिए सूर्यदेव की आराधना करने के लिए आदित्य हृदय स्तोत्र लाभकारी होता है।
  • विशेषकर रविवार के दिन इसका पाठ करना आवश्यक बताया गया है। इस स्त्रोत का पाठ करने से सूर्य देव प्रसन्न होते है और उनकी कृपा भी प्राप्त होती है।
  • इस स्तोत्र का उल्लेख रामायण में वाल्मीकि जी द्वारा किया गया है जिसके अनुसार इस स्तोत्र को ऋषि अगस्त्य ने भगवान श्री राम को रावण पर विजय प्राप्त करने हेतु लिए दिया था।
  • इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से आँखों की समस्या से मुक्ति मिल जाती है।

आदित्य-हृदय स्तोत्र का हिंदी अर्थ (Hindi meaning of Aditya-Hridaya Stotra)

आदित्य-हृदय स्तोत्र

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् । रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ॥2॥

अर्थात - उधर श्री रामचन्द्रजी युद्ध से थककर चिन्ता करते हुए रणभूमि में खड़े थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। यह देख अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे। श्रीराम के समीप जाकर बोले।

राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् । येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥ 3॥

अर्थात - सबके हृदय में रमण करने वाले महाबाहो राम ! यह सनातन गोपनीय स्तोत्र सुनो। वत्स ! इसके जप से तुम युद्ध में अपने समस्त शत्रुओं पर विजय प्राप्त करोगे।

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥ 4॥

सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् । चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥ 5॥

अर्थात - इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है आदित्यहृदय। यह परम पवित्र और सम्पूर्ण शत्रुओं का नाश करने वाला स्त्रोत है। इसके जप से सदैव विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है। सम्पूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला उत्तम साधन है।

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् । पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥

अर्थात - भगवान सूर्य अपनी अनन्त किरणों से सुशोभित हैं। ये नित्य उदय होने वाले (समुद्यन्), देवता और असुरों से नमस्कृत, विवस्वान् नाम से प्रसिद्ध, प्रभा का विस्तार करने वाले (भास्कर) और संसार के स्वामी (भुवनेश्वर) हैं। तुम इनका (रश्मिमते नमः, समुद्यते नमः, देवासुरनमस्कताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन नाम मंत्रों के द्वारा) पूजन करो।

सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः । एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥7॥

अर्थात - सम्पूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। ये तेज की राशि तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये ही अपनी रश्मियों का प्रसार करके देवता और असुरों सहित संपूर्ण लोकों का पालन करते हैं।

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः। महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥ 8॥

अर्थात - ये ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, इंद्र, कुबेर, काल, यम, चन्द्रमा, वरुण, पितर, वसु, साध्य, अश्विनी कुमार, मरुदगण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रभा के पुंज हैं।

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः । वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥9॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् । सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥10॥

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् । तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥11॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः । अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः । कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥

अर्थात - इन्हीं के नाम आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग (आकाश में विचरने वाले), पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान् (प्रकाशमान), सुर्वणसदृश, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड के स्रोत के बीज), दिवाकर ( दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हरिदश्व ( हरे रंग के घोड़े वाले), सहस्रार्चि (हजारों किरणों से शोभायमान), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू (कल्याण के उदगमस्थान), त्वष्टा (भक्तों का दुःख दूर करने अथवा जगत का संहार करने वाले), अंशुमान (किरण धारण करने वाले), हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से सुख देने वाले), तपन (गर्मी उत्पन्न करने वाले), अहरकर (दिनकर), रवि (सब के स्तुति के पात्र), अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में ग्रहण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख (आनन्दस्वरूप ), शिशिरनाशन (शीत को नष्ट करने वाले), व्योमनाथ (आकाश के राजा), तमोभेदी (अन्धकार का नाश करने वाले), ऋग, यजुः और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि (घनी वृष्टि के कारण), अपां मित्र (जल की उत्पत्ति करने वाले), विन्ध्यीथीप्लवंगम (आकाश में तीव्रता से चलने वाले), आतपी (घाम को जन्म देने वाले), मण्डली (किरणसमूह को धारण करने वाले), मृत्यु (मौत के कारण), पिंगल (भूरे रंग वाले) सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व (सर्वस्वरूप), महातेजस्वी, रक्त (लाल रंगवाले), सर्वभवोदभव (सबकी उत्पत्ति के कारण), नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत की रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी तथा द्वादशात्मा (बारह स्वरूपों में अभिव्यक्त) हैं । (इन सभी नामों से प्रसिद्ध सूर्यदेव !) आपको नमस्कार है।

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥16॥

अर्थात - पूर्वगिरी उदयाचल तथा पश्चिम गिरि अस्ताचल के रूप में आपको नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको प्रणाम है।

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः । नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥17॥

अर्थात - आप जय स्वरूप तथा विजय और कल्याण के दाता है। आपके रथ में हरे रंग के घोड़े जुड़े रहते हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य ! आपको बारंबार प्रणाम है। आप अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से प्रसिद्ध है, आपको नमस्कार है।

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः । नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥

अर्थात - अर्थात - उग्र, वीर, और सारंग सूर्यदेव को नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचंड तेजधारी मार्तण्ड को प्रणाम है।

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥19॥

अर्थात - आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर आपकी संज्ञा हैं, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाला अग्नि आपका ही स्वरूप है, आप रौद्ररूप धारण करने वाले हैं, आपको नमस्कार है।

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥20॥

अर्थात - आप अज्ञान और अन्धकार के नाशक, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं, आपका स्वरूप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको नमस्कार है।

तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥ 21॥

अर्थात - आपकी प्रभा तपाये हुए सुवर्ण के समान है, आप हरि (अज्ञान का हरण करने वाले) और विश्वकर्मा (संसार की सृष्टि करने वाले) हैं, तम के नाशक, प्रकाश स्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको नमस्कार है।

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥ 22॥

अर्थात - रघुनन्दन ! ये भगवान सूर्य ही सम्पूर्ण भूतों का संहार, सृष्टि और पालन करते हैं। ये ही अपनी किरणों से गर्मी पहुँचाते और वर्षा करते हैं।

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥ 23 ॥

अर्थात - ये सब भूतों में अन्तर्यामीरूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं।

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥ 24॥

अर्थात - देवता, यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। सम्पूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं, उन सबका फल देने में ये ही पूर्ण समर्थ हैं।

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥ 25॥

अर्थात - राघव ! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा और किसी भय के अवसर पर जो कोई पुरुष इन सूर्यदेव का कीर्तन करता है, उसे दुःख नहीं भोगना पड़ता।

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् । एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ॥ 26॥

अर्थात - इसलिए तुम एकाग्रचित होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर की पूजा करो। इस आदित्य हृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में विजय पाओगे।

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥ 27॥

अर्थात - महाबाहो ! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे। यह कहकर अगस्त्य जी जैसे आये थे, उसी प्रकार चले गये।

एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा । धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥ 28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् । त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥ 29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥

अर्थात - उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्री रामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध चित्त से आदित्यहृदय को धारण किया और तीन बार आचमन करके शुद्ध हो भगवान सूर्य की ओर देखते हुए इसका तीन बार जाप किया। इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े। उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया।

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः । निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥ 31 ॥ ।।सम्पूर्ण ।।

अर्थात - उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान सूर्य ने प्रसन्न होकर श्री रामचन्द्रजी की ओर देखा और निशाचराज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्षपूर्वक कहा रघुनन्दन ! अब जल्दी करो।

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