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शिव कथा

क्या आप जानते हैं शिवजी क्यों करते हैं तांडव? क्यों धारण करते हैं भस्म और नाग? पढ़िए शिव कथा और जानिए उनके रहस्यमयी जीवन की अद्भुत कहानियाँ

शिव कथा के बारे में

शिव कथा भगवान शिव की महानता, करुणा और शक्ति का वर्णन करती है। इसमें उनके विवाह, त्रिपुरासुर वध, नीलकंठ बनने और भक्तों को दिए गए वरदानों की गाथाएं सम्मिलित होती हैं, जो श्रद्धालुओं को भक्ति व ज्ञान से जोड़ती हैं।

शिव कथा: रावण और कैलाश पर्वत

लंका के राजा रावण एक अत्यंत बलशाली राक्षस था। वह शिव का परम भक्त भी था। उसने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षों तक कठोर तप किया। जब भगवान शिव उसकी भक्ति से प्रसन्न हुए, तो उन्होंने उसे कई शक्तियाँ और वरदान दिए। लेकिन रावण का अहंकार भी बहुत बढ़ गया था।

एक बार रावण ने सोचा कि कैलाश पर्वत, जहाँ भगवान शिव अपने परिवार सहित रहते हैं, उसे लंका ले जाना चाहिए ताकि शिव हमेशा वहीं रहें। उसने पूरे कैलाश पर्वत को अपनी भुजाओं में उठाने की कोशिश की।

जैसे ही रावण ने पर्वत को उठाया, पूरे ब्रह्मांड में कंपन होने लगा। तब माता पार्वती भयभीत हो गईं और भगवान शिव से कारण पूछा। शिव मुस्कराए और समझ गए कि यह रावण का कार्य है। उन्होंने अपने अंगूठे से पर्वत को दबा दिया, जिससे रावण पर्वत के नीचे दब गया और वह हजारों वर्षों तक वहां फंसा रहा।

रावण को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने वहीं बैठकर एक हजार साल तक शिव तांडव स्तोत्र का पाठ किया। अंत में, भगवान शिव प्रसन्न हुए और उसे क्षमा कर दिया। उन्होंने रावण को आशीर्वाद भी दिया और उसका नाम रावण (जो कि रुदन करता है) पड़ा क्योंकि उसने दर्द में चिल्लाते हुए शिव का स्तुति की थी।

बद्रीनाथ की कथा

बहुत समय पहले हिमालय की ऊँचाई पर स्थित एक शांत और दिव्य स्थान था, जिसे आज हम बद्रीनाथ के नाम से जानते हैं। यह वही जगह थी जहाँ भगवान शिव और माता पार्वती निवास करते थे। एक दिन देवऋषि नारद भगवान विष्णु के पास पहुँचे और उनसे कहा कि वे मानवता के लिए एक अच्छी मिसाल नहीं बन पा रहे हैं। नारद बोले, “आप तो सदैव शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते रहते हैं, माता लक्ष्मी आपकी सेवा में लगी रहती हैं, और आप आराम का जीवन जी रहे हैं। बाकी जीवों को इससे क्या प्रेरणा मिलेगी? आपको भी तप और सेवा का आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।” नारद की बात सुनकर भगवान विष्णु को आत्मचिंतन हुआ और उन्होंने सोचा कि अब समय आ गया है जब उन्हें भी कठोर तपस्या करनी चाहिए।

इस उद्देश्य से भगवान विष्णु हिमालय की ओर चल पड़े, तप के लिए एक उपयुक्त स्थान की खोज में। हिमालय की गोद में उन्हें एक अत्यंत शांत और सुंदर स्थान मिला, जहाँ चारों ओर हिमाच्छादित पर्वत थे, नदियाँ बह रही थीं और वातावरण एकाग्रता के लिए आदर्श था। वहाँ एक सुंदर-सा घर भी था जो उन्हें बहुत पसंद आया। लेकिन जैसे ही वे भीतर गए, उन्हें समझ आ गया कि यह स्थान किसी और का है यह तो स्वयं भगवान शिव का निवास था। विष्णु जानते थे कि शिव जी गंभीर और क्रोधी स्वभाव के हैं, और यदि उन्हें गुस्सा आ गया तो वे कुछ भी कर सकते हैं। ऐसे में उन्होंने एक युक्ति सोची और स्वयं को एक छोटे रोते हुए बच्चे के रूप में बदल लिया।

भगवान शिव और पार्वती उस समय कहीं बाहर टहलने गए थे। जब वे लौटे तो देखा कि उनके घर के दरवाजे पर एक छोटा बच्चा जोर-जोर से रो रहा है। माता पार्वती के भीतर मातृत्व का भाव जाग गया और वे उस बच्चे को गोद में उठाने लगीं। लेकिन शिव जी ने उन्हें रोका और कहा, “इस बच्चे को मत छूना, यह कोई सामान्य बालक नहीं लगता। आस-पास किसी के पैरों के निशान तक नहीं हैं, ये अचानक यहाँ कैसे आ गया?” पार्वती जी ने कहा, “मैं यह सब नहीं जानती, लेकिन एक माँ अपने सामने एक रोते हुए बच्चे को नहीं देख सकती।” वे बच्चे को गोद में उठाकर घर के भीतर ले गईं। बच्चा तुरंत चुप हो गया और पार्वती की गोद में प्रसन्न मुद्रा में शिव जी की ओर देखने लगा। शिव जानते थे कि आगे क्या होने वाला है, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा।

कुछ समय बाद पार्वती जी उस बच्चे को घर में सुलाकर शिव जी के साथ पास ही के गर्म पानी के कुंड में स्नान के लिए चली गईं। जब वे लौटे तो देखा कि घर अंदर से बंद है। पार्वती आश्चर्य में पड़ गईं कि दरवाज़ा किसने बंद किया। शिव बोले, “मैंने पहले ही कहा था, यह बच्चा सामान्य नहीं है। अब इसने घर का दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया है।” पार्वती चिंतित हो गईं और पूछा, “अब क्या करें?” शिव जी के सामने दो ही रास्ते थे या तो वह इस 'बच्चे' को अपनी शक्ति से भस्म कर दें, या फिर वहाँ से चले जाएँ। लेकिन क्योंकि यह बच्चा अब पार्वती को प्रिय हो चुका था, शिव जी ने उसे छूने से भी इनकार कर दिया और बोले, “चलो, कहीं और चलते हैं।”

इस तरह भगवान शिव और माता पार्वती को अपना ही घर छोड़ना पड़ा। वे एक तरह से “बेघर” हो गए और नए निवास की तलाश में चल पड़े। अंततः वे केदारनाथ में जाकर बसे, जो आज भी शिवभक्तों का प्रमुख तीर्थ है। दूसरी ओर, विष्णु जी अब उस स्थान में स्थापित हो गए जहाँ शिव-पार्वती रहते थे। उन्होंने वहाँ कठोर तपस्या की और वही स्थान आगे चलकर बद्रीनाथ धाम के रूप में प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है कि ठंड से बचाने के लिए माता लक्ष्मी ने वहाँ एक बदरी (बेर) के वृक्ष का रूप धारण किया था, जिससे विष्णु जी को तपस्या में कोई विघ्न न आए। तभी से इस स्थान को 'बद्री-नाथ', यानी बदरी का स्वामी, कहा जाने लगा।

शिव और चंद्रमा की कथा

बहुत प्राचीन काल की बात है। देवताओं और ऋषियों के बीच चंद्रदेव का स्थान अत्यंत सम्मानित था। चंद्रमा अपनी सुंदरता, शीतलता और तेज के लिए प्रसिद्ध थे। उनका स्वभाव बहुत आकर्षक था, लेकिन उसमें अहंकार भी आ गया था।

चंद्रदेव का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 बेटियों से हुआ था, जो सभी 27 नक्षत्रों की प्रतीक थीं। हालांकि, चंद्रमा को केवल रोहिणी बहुत प्रिय थीं। वे सारा समय केवल रोहिणी के साथ बिताते थे और अन्य पत्नियों की उपेक्षा करते थे।

जब यह बात बाकी बहनों को बुरी लगी, तो उन्होंने यह शिकायत अपने पिता दक्ष प्रजापति से की। दक्ष ने चंद्रमा को समझाने की कोशिश की, लेकिन जब वे नहीं माने, तो दक्ष ने उन्हें श्राप दिया कि तुम क्षय रोग से पीड़ित होकर धीरे-धीरे क्षीण होते जाओगे। श्राप के प्रभाव से चंद्रदेव की कांति और तेज धीरे-धीरे कम होने लगा। वे दुखी हो गए और देवताओं के पास जाकर सहायता माँगी। देवताओं ने उन्हें सलाह दी कि वे भगवान शिव की तपस्या करें, क्योंकि वही उन्हें श्राप से मुक्त कर सकते हैं।

चंद्रदेव ने कठोर तपस्या शुरू की और अंत में भगवान शिव उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए। उन्होंने दक्ष के श्राप को पूरी तरह तो नहीं हटाया, लेकिन उसे आंशिक रूप से शिथिल कर दिया।

भगवान शिव ने कहा-

तुम हर महीने क्षीण भी होओगे और फिर धीरे-धीरे पूर्ण भी होओगे। इसी से तुम्हारा 'कृष्ण पक्ष' और 'शुक्ल पक्ष' का चक्र चलेगा।" भगवान शिव ने उन्हें आशीर्वाद देने के साथ-साथ, अपने मस्तक पर धारण भी कर लिया, जिससे चंद्रमा फिर से तेजस्वी हो गए। इसी कारण शिव जी को “चंद्रशेखर” भी कहा जाता है यानी “जिनके शिखर (मस्तक) पर चंद्रमा विराजमान हैं।

शिव जी नीलकंठ कैसे बने

बहुत प्राचीन समय की बात है। एक बार देवताओं और असुरों के बीच समझौता हुआ कि वे सागर मंथन (समुद्र मंथन) करेंगे, जिससे अमृत प्राप्त होगा। यह कार्य बहुत कठिन था और इसके लिए मंदार पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया। देव और दैत्य दोनों ने समुद्र को मथना शुरू किया।

मंथन से कई अमूल्य रत्न, देवी-देवता, औषधियाँ और दिव्य वस्तुएँ निकलीं। लेकिन उसी मंथन से एक बेहद भयानक विष भी निकला, जिसे "हालाहल" कहा गया। यह विष इतना जहरीला था कि उसके स्पर्श मात्र से ही सभी लोक जलने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया न देवता इसकी ओर बढ़ सकते थे, न असुर।

तब सभी देवता और दैत्य भागते हुए भगवान शिव के पास पहुँचे और उनसे विनती की:

“हे महादेव! आप ही इस संसार की रक्षा कर सकते हैं। यदि आप कुछ नहीं करेंगे तो यह विष तीनों लोकों को नष्ट कर देगा।” करुणामूर्ति महादेव ने तुरंत निर्णय लिया। उन्होंने वह संपूर्ण विष अपने करकमलों से उठाया और बिना एक पल गंवाए उसे पी गए। लेकिन उन्होंने उसे गले से नीचे नहीं उतरने दिया, ताकि विष उनके शरीर को नुकसान न पहुँचा सके। विष उनके कंठ में ही अटक गया और वहाँ की त्वचा नीली पड़ गई।

तभी से भगवान शिव को "नीलकंठ" कहा जाने लगा

शिव जी की जटाओं में गंगा कैसे समाई

बहुत समय पहले राजा सगर ने एक विशाल अश्वमेध यज्ञ किया था। यज्ञ में प्रयोग होने वाला घोड़ा इंद्र द्वारा चुराकर पाताल लोक में छिपा दिया गया। राजा सगर के साठ हजार पुत्र उस घोड़े की खोज में पाताल लोक तक पहुँच गए। वहाँ उन्होंने देखा कि घोड़ा ऋषि कपिल मुनि के पास बंधा हुआ है। वे उस समय गहन तपस्या में लीन थे। सगरपुत्रों ने बिना कुछ सोचे-समझे ऋषि कपिल पर घोड़ा चुराने का आरोप लगा दिया और उन्हें अपमानित किया। इससे कपिल मुनि क्रोधित हो गए और अपने योगबल से सभी साठ हजार राजपुत्रों को भस्म कर दिया।

उन सभी की आत्माएँ बिना अंतिम संस्कार के भटकने लगीं और उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकी। कई पीढ़ियाँ बीत गईं, लेकिन कोई उन्हें तर्पण नहीं दिला पाया। अंत में राजा सगर के वंशज, महाराज भागीरथ ने यह संकल्प लिया कि वे अपने पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष दिलाएंगे। इसके लिए उन्हें स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर लाना था ताकि उसके पवित्र जल से तर्पण करके उनके पितरों का उद्धार किया जा सके। भागीरथ ने हजारों वर्षों तक कठोर तपस्या की और अंत में गंगा देवी को प्रसन्न किया।

गंगा ने प्रकट होकर कहा, “मैं स्वर्ग से पृथ्वी पर प्रचंड वेग से गिरूंगी, जिससे पृथ्वी मेरा वेग सहन नहीं कर पाएगी और टूट जाएगी। कोई ऐसा चाहिए जो मेरे वेग को संभाल सके।” तब भागीरथ ने भगवान शिव की आराधना की। उन्होंने भी कठोर तप किया और भगवान शिव को प्रसन्न किया। शिवजी ने प्रसन्न होकर कहा कि वे गंगा को अपनी जटाओं में समेट लेंगे ताकि वह पृथ्वी पर धीरे-धीरे उतरे और किसी प्रकार का विनाश न हो।

जब गंगा स्वर्ग से गिरीं, तो उनका वेग अत्यंत भयानक था। शिवजी ने तुरंत अपनी घनी जटाएँ फैला दीं और गंगा उनमें उलझ गईं। वह शिव की जटाओं में ही बहने लगीं और बाहर नहीं निकल सकीं। शिव ने फिर अपनी जटाओं में से एक पतली धारा पृथ्वी की ओर छोड़ी, जिससे गंगा धीरे-धीरे नीचे उतरीं। इसके बाद भागीरथ गंगा को लेकर उस स्थान पर पहुँचे जहाँ उनके पूर्वजों की राख पड़ी थी। गंगा के पवित्र जल से उनका तर्पण किया गया और उनकी आत्माएँ मुक्त होकर स्वर्ग चली गईं।

इसी कारण गंगा धरती पर अवतरित हुईं और भगवान शिव ने उन्हें अपने मस्तक की जटाओं में समेटकर उनका वेग सहा। तभी से भगवान शिव को "गंगाधर" कहा जाता है अर्थात “जो गंगा को धारण करते हैं।

शिव जी हाथी क्यों बने?

बहुत समय पहले की बात है। एक बार भगवान शिव ध्यान में लीन थे, और उनका शरीर तप की अग्नि से जल रहा था। उस समय सभी देवता उनसे मिलने गए, लेकिन शिव जी गहन समाधि में होने के कारण किसी को उत्तर नहीं दे रहे थे। चारों ओर से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी, जिससे कोई भी उनके पास नहीं जा पा रहा था।

उसी समय, एक हाथी अपनी प्यास बुझाने के लिए जंगल में घूम रहा था। वह एक छोटे से सरोवर के पास आया और वहाँ की शांत और शीतल जलधारा को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वहाँ रहने का निश्चय किया और हर दिन उस सरोवर के पास आकर अपनी प्यास बुझाने लगा। उसी सरोवर के पास भगवान शिव एक लिंग रूप में विराजमान थे, जिन्हें किसी ने वहाँ स्थापित किया था। हाथी को यह नहीं पता था कि वहाँ भगवान शिव स्वयं शिवलिंग के रूप में उपस्थित हैं। हाथी रोज़ उस स्थान को पत्तों और फूलों से साफ करता, जल चढ़ाता और फिर पानी पीकर चला जाता।

इस तरह कई दिन बीते। हाथी की भक्ति निश्छल और सच्ची थी, बिना किसी ज्ञान के भी वह शिव सेवा में लीन था। यह देखकर शिवजी अत्यंत प्रसन्न हुए और प्रकट होकर बोले,

“तेरी निष्काम सेवा और भक्ति से मैं प्रसन्न हूँ। तुझे मेरा आशीर्वाद प्राप्त होगा।”

एक अन्य लोक कथा के अनुसार, भगवान शिव ने स्वयं हाथी का रूप इसलिए लिया, क्योंकि एक बार एक राक्षस ने तप कर विशेष शक्ति प्राप्त की थी और देवताओं को परेशान करने लगा था। उसे वरदान था कि कोई सामान्य देवता या इंसान उसे मार नहीं सकता। तब भगवान शिव ने हाथी का रूप धारण करके उसका अंत किया, क्योंकि राक्षस ने यह नहीं सोचा था कि एक "जानवर" के रूप में भगवान प्रकट हो सकते हैं। इस रूप में शिवजी ने दिखाया कि ईश्वर किसी भी रूप में प्रकट हो सकते हैं, जब धर्म की रक्षा करनी हो।

इसके अलावा, दक्षिण भारत की एक प्रसिद्ध परंपरा में खासकर तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के कुछ भागों में शिव जी के गजमुख रूप की पूजा होती है, जहाँ उन्हें हाथी का सिर लगाए हुए दर्शाया जाता है। इस रूप में उन्हें ‘गजमुखेश्वर’ कहा जाता है।

शिवजी का सबसे बड़ा भक्त लुटेरा

बहुत समय पहले की बात है। एक घने जंगल में एक लुटेरा रहता था, जिसका नाम कुछ कथाओं में भिल या गुहा बताया जाता है। वह न किसी धर्म को जानता था, न पूजा-पाठ, न संस्कार। उसका काम केवल राहगीरों को लूटना था वह जो भी मिलता, लूटकर अपनी और अपने परिवार की जरूरतें पूरी करता। पर उसके भीतर एक बात विशेष थी उसका मन निर्मल और निश्छल था। वह अपने माता-पिता और परिवार से अत्यंत प्रेम करता था और जो भी करता, केवल उनके लिए करता था।

एक दिन जंगल में एक संत उसे मिले। लुटेरे ने उन्हें भी रोक लिया और लूटने का प्रयास किया। लेकिन संत ने शांत भाव से उससे कहा, “तू जो पाप कर रहा है, क्या तेरा परिवार तेरे पापों का भागीदार बनेगा?”

लुटेरा बोला, “हां, वे मेरे लिए ही तो मैं ये सब करता हूँ।”

संत ने कहा, “तो जाओ, उनसे पूछो कि क्या वे तुम्हारे पाप बाँटेंगे?”

लुटेरा घर गया और अपने परिवार से पूछा। सबने साफ इनकार कर दिया "हम तुम्हारे पाप के भागीदार नहीं हैं।"

यह सुनकर लुटेरे को झटका लगा। उसे पहली बार अपने कर्मों का अहसास हुआ और वह संत के पास लौट आया। वह फूट-फूटकर रोने लगा और बोला, “मुझे बताइए प्रभु की भक्ति कैसे करूं?” संत ने कहा, “तू ‘राम’ नाम का जप कर, वही तुझे मुक्त करेगा।”

लुटेरा अज्ञानी था, ‘राम’ शब्द भी उसे ठीक से नहीं आता था। वह ‘मरा मरा’ बोलने लगा। लेकिन उसकी भावना इतनी सच्ची थी कि वह दिन-रात उसी नाम को जपता रहा और उसी भक्ति से वाल्मीकि बन गया, जिन्होंने बाद में रामायण की रचना की।

शिव जी के तांडव का रहस्य

भगवान शिव का तांडव एक ऐसा दिव्य नृत्य है, जो केवल क्रोध और विनाश का प्रतीक नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की गहराइयों में छिपे सृजन और चेतना का रहस्य है। इसे “तांडव” कहा जाता है वह नृत्य जो संहार करता है, लेकिन उसी संहार से एक नई सृष्टि की शुरुआत भी होती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब राजा दक्ष ने अपनी पुत्री सती का अपमान किया और सती ने यज्ञ कुंड में आत्मदाह कर लिया, तब भगवान शिव अत्यंत क्रोधित हो गए। उन्होंने सती के मृत शरीर को उठाकर पूरे ब्रह्मांड में घूमना शुरू किया और उस समय उनका भयंकर तांडव आरंभ हुआ। यह तांडव इतना विकराल था कि देवता, ऋषि-मुनि, सभी भयभीत हो उठे। तीनों लोक काँपने लगे और समय थम-सा गया।

देवताओं ने तब भगवान विष्णु से प्रार्थना की। विष्णु जी ने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए, जो विभिन्न स्थानों पर गिरे और वहां शक्ति पीठ बने। जैसे ही शिव के कंधे से सती का भार हटा, उनका क्रोध शांत हुआ और तांडव रुक गया। परंतु इस घटना के माध्यम से तांडव का जो गूढ़ अर्थ सामने आया, वह है विनाश कोई अंत नहीं, बल्कि नए आरंभ की भूमिका है।

भगवान शिव को नटराज कहा जाता है यानी नृत्य का राजा। नटराज की मूर्ति में उनका एक हाथ अग्नि लिए होता है, जो विनाश का प्रतीक है। दूसरे हाथ में डमरू है, जो ॐ की ध्वनि और सृष्टि के आरंभ का प्रतीक है। एक हाथ में अभय मुद्रा है, जिससे वे भक्तों को आश्वस्त करते हैं, जबकि उनके पैरों के नीचे "अपस्मार" नामक बौना राक्षस है, जो अज्ञानता का प्रतीक है। इस प्रकार उनका तांडव केवल नृत्य नहीं, बल्कि सम्पूर्ण ब्रह्मांड के नियमों की अभिव्यक्ति है जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म का चक्र।

यह तांडव भीतर भी घटता है जब मनुष्य के अंदर की अज्ञानता, अहंकार, बुराई और अंधकार को शिव नष्ट करते हैं, तो उसके स्थान पर नई चेतना, नया प्रकाश और नई शक्ति का जन्म होता है। इसलिए तांडव का रहस्य यही है परिवर्तन, जागरण और पुनर्निर्माण। भगवान शिव के तांडव से हमें यह सीख मिलती है कि जब जीवन में सब कुछ टूटने लगे, जब सब खत्म होता प्रतीत हो तो घबराना नहीं चाहिए। क्योंकि वही क्षण किसी नए आरंभ की भूमिका बन सकता है। शिव का तांडव अंत नहीं, शुरुआत है।

शिव जी और नाग की कथा

बहुत प्राचीन समय की बात है। जब भगवान शिव ने संसार की रक्षा के लिए विषपान किया और नीलकंठ बने, तब उनका शरीर तप की अग्नि और विष के प्रभाव से अत्यधिक गर्म हो गया था। ब्रह्मा, विष्णु, देवी-देवता सभी चिंतित थे कि यह उष्मा कहीं सृष्टि को न जला दे। तभी नागों के राजा वासुकी ने शिव जी के पास जाकर निवेदन किया कि वे उन्हें अपने गले में लपेटने की अनुमति दें, जिससे उनके विष का प्रभाव भी कम हो और शिवजी का ताप भी शांत हो जाए।

वासुकी की यह सेवा-भावना देखकर भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें अपने गले का आभूषण बना लिया। तभी से शिव जी के गले में वासुकी नाग शोभायमान हैं। यह केवल प्रतीक नहीं, बल्कि एक संदेश है विष को भी शिव अपनाते हैं, पर नियंत्रित करके, चेतना में बदल कर। एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार देवताओं और असुरों के बीच विवाद हुआ कि कौन शिव का प्रिय है। तब शिवजी ने कहा कि जो मेरी तरह भयंकर विष को धारण कर सकता है और फिर भी शांत रह सकता है, वही मुझे प्रिय है। नागराज वासुकी ने यह चुनौती स्वीकार की और स्वयं को शिव को समर्पित कर दिया। शिव जी ने उन्हें प्रसन्न होकर अपने गले में धारण किया, और इस प्रकार वे ‘भूषण’ नहीं, शिवभक्तों में सबसे ऊंचे बन गए।

कुछ मान्यताओं के अनुसार, नाग केवल शिव के गले में ही नहीं, उनके हाथ, जटाओं और कमर पर भी दिखाई देते हैं। यह दर्शाता है कि शिव मृत्यु और काल के अधिपति हैं, और विषैले, भयावह जीव भी उनके अधीन हैं।

हरिहर पुत्र आयप्पा की अद्भुत कथा

भगवान शिव और भगवान विष्णु के पुत्र की कथा दक्षिण भारत में बहुत प्रसिद्ध और पूजनीय है। यह कथा भगवान अयप्पा से जुड़ी है, जिन्हें “हरिहरपुत्र” कहा जाता है हरि अर्थात विष्णु और हर अर्थात शिव। इस कथा की शुरुआत होती है राक्षसी महिषी से, जो महिषासुर की बहन थी। उसने कठोर तप करके यह वरदान प्राप्त कर लिया था कि वह केवल उसी से पराजित हो सकती है जो शिव और विष्णु दोनों का पुत्र हो। चूंकि शिव और विष्णु दो अलग-अलग शक्तियाँ हैं, इसलिए ऐसा पुत्र संभव नहीं माना जाता था। यही कारण था कि महिषी अजेय बनी रही और देवताओं के लिए एक बहुत बड़ा संकट बन गई।

उधर, एक बार भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया था वही रूप जिसमें उन्होंने समुद्र मंथन के समय देवताओं को अमृत वितरित किया था। यह मोहिनी रूप अत्यंत आकर्षक और दिव्य था। जब भगवान शिव ने मोहिनी रूप देखा, तो वे उसकी अद्भुत ऊर्जा और सौंदर्य से मोहित हो गए। यह केवल आकर्षण नहीं था, बल्कि चेतना और शक्ति के संयोग का प्रतीक था। इस अलौकिक संयोग से एक दिव्य बालक उत्पन्न हुआ, जिसे हरिहरपुत्र कहा गया यानी वह जो शिव (हर) और विष्णु (हरि) दोनों का पुत्र है।

यह बालक अत्यंत तेजस्वी और दिव्य था। देवताओं ने उसे पंडालम नामक राज्य के राजा को सौंप दिया, ताकि वह एक सामान्य मानव के रूप में पले-बढ़े। राजा ने उसे मणिकंदन नाम दिया, क्योंकि उसके गले में एक दिव्य मणि थी। मणिकंदन बचपन से ही अद्भुत बुद्धि, वीरता और करुणा से भरपूर था। जब वह युवा हुआ, तब उसने महिषी का वध कर दिया और देवताओं को उसके आतंक से मुक्त कराया। यह वही कार्य था, जिसके लिए उसका जन्म हुआ था।

महिषी का वध करने के बाद मणिकंदन ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और संसार से अलग होकर तपस्या में लीन हो गया। आज वही मणिकंदन, भगवान अयप्पा के नाम से पूजित हैं। केरल के सबरीमला स्थित मंदिर भगवान अयप्पा को समर्पित है, जहाँ हर वर्ष करोड़ों श्रद्धालु कठिन तप, नियम और व्रत के साथ दर्शन के लिए जाते हैं। उन्हें शिव और विष्णु के पुत्र के रूप में पूजा जाता है।

यह कथा केवल एक चमत्कारी कहानी नहीं, बल्कि गहरा आध्यात्मिक संदेश देती है कि जब संसार में अधर्म बढ़ता है, तब ईश्वर सीमाओं को पार कर नए रूप में प्रकट होते हैं। शिव और विष्णु जैसे दो महाशक्तियों का एक साथ मिलन, यह दर्शाता है कि ब्रह्मांड में कुछ भी असंभव नहीं है। भगवान अयप्पा उसी दिव्यता का प्रतीक हैं जहाँ शक्ति और करुणा, तांडव और माधुर्य, दोनों का संतुलन होता है।

शिवजी ने क्यों चुना गृहस्थ जीवन?

भगवान शिव को हम अक्सर एक वैरागी, तपस्वी और ध्यान में लीन योगी के रूप में जानते हैं। वे श्मशान में रहते हैं, रुद्राक्ष धारण करते हैं, बाघ की खाल पहनते हैं और साधना में लीन रहते हैं। फिर भी, उन्हीं शिव ने दो बार विवाह किया पहले सती से और फिर पार्वती से। यह प्रश्न बहुतों के मन में आता है कि एक सन्यासी भगवान गृहस्थ क्यों बने?

इसका उत्तर हमें सृष्टि के उद्देश्य और शिव के दिव्य चरित्र में मिलता है। सृष्टि के प्रारंभ में, जब ब्रह्मा ने जीवों की रचना की, तब उन्होंने शिव से भी कहा कि वे सृष्टि में भाग लें। परंतु शिव ध्यान में लीन हो गए। उन्होंने संसारिक मोह को त्याग दिया। ब्रह्मा ने तब सती का जन्म किया जो शक्ति का अवतार थीं और उनका उद्देश्य था शिव को ध्यान से निकालकर सृष्टि को संतुलित करना।

सती ने कठोर तप करके शिव को प्रसन्न किया और उनसे विवाह किया। शिवजी ने सती का भाव समझा और उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार किया। यह गृहस्थ जीवन केवल सामाजिक या सांसारिक नहीं था यह शिव और शक्ति के मिलन का रूप था, जिससे सृष्टि में संतुलन बना। परंतु यह सुख अधिक समय तक नहीं टिक सका। जब सती के पिता राजा दक्ष ने शिव का अपमान किया और सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राण त्याग दिए, तो शिव फिर से वैरागी बन गए। वे क्रोधित भी हुए, और दुःखी भी। उन्होंने सती के शरीर को लेकर पूरे ब्रह्मांड में तांडव किया।

बाद में सती ने पार्वती के रूप में पुनर्जन्म लिया हिमवान और मैना की पुत्री बनकर। उन्होंने फिर तप किया, शिव को फिर से प्रसन्न किया, और उन्हें अपने गृहस्थ जीवन में वापस लाया। शिव ने इस बार उन्हें स्वीकारते हुए कहा कि यह संन्यास और गृहस्थ दोनों का संतुलन है। वे योगी हैं, लेकिन गृहस्थ जीवन भी योग का ही एक रूप है जहाँ त्याग और प्रेम साथ-साथ चलते हैं।

शिव जी और भस्म की मूल कथा

बहुत समय पहले की बात है। एक बार पार्वती जी ने भगवान शिव से पूछा, "प्रभु, आप अपने पूरे शरीर पर ये भस्म क्यों लगाते हैं? क्या ये श्मशान की राख है? इसमें क्या रहस्य है?" शिव जी मंद मुस्कराए और बोले,

"हे पार्वती! यह कोई सामान्य राख नहीं, बल्कि जीवन और मृत्यु का सबसे बड़ा सत्य है। यह भस्म मुझे बार-बार यह स्मरण कराती है कि यह शरीर नश्वर है आज है, कल नहीं रहेगा।"

इसके बाद शिव जी ने एक कथा सुनाई।

उन्होंने कहा एक बार ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की और जीवों को जन्म दिया। लेकिन जब उन्होंने देखा कि जीव माया, अहंकार, मोह और शरीर की सुंदरता में फंसते जा रहे हैं, तो वे चिंतित हो उठे। तब उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की कि कोई ऐसा उपाय बताएं जिससे जीव अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानें।

शिव जी ने तब सबको समझाने के लिए एक लीला रची। वे श्मशान में गए और वहां एक शव की राख को उठाकर अपने शरीर पर लपेट लिया। सारे देवता और ऋषि यह दृश्य देखकर अचंभित हो गए।

शिवजी बोले: "देखो, यह शरीर, यह रूप, यह सौंदर्य अंत में सब इसी राख में बदल जाता है। जो इसे जान लेता है, वही सच्चा ज्ञानी है। यही है जीवन का अंतिम सत्य।"

एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार एक महान ऋषि ने अपनी तपस्या पूरी कर प्राण त्याग दिए। उनका शरीर इतना पवित्र था कि जब वह अग्नि में समर्पित हुआ, तो उससे निकली भस्म दिव्य सुगंध से भरी हुई थी। शिवजी ने वह भस्म उठाकर पूरे शरीर पर लगा ली और कहा "जो आत्मज्ञान प्राप्त करता है, उसका शरीर नश्वर होते हुए भी अमरत्व का प्रतीक बन जाता है।"

तभी से भगवान शिव अपने शरीर पर भस्म लगाते हैं। यह भस्म न केवल मृत्यु का प्रतीक है, बल्कि यह दिखाती है कि शिव माया से परे हैं, वे काल के भी काल हैं। उनके लिए सुंदरता या गहनों का कोई महत्व नहीं उनका श्रृंगार ही भस्म है, और यही उन्हें "भूतनाथ" बनाता है सभी पंचभूतों और प्राणियों के स्वामी।

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Published by Sri Mandir·July 3, 2025

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