क्या आप जानते हैं यह अंतिम ज्योतिर्लिंग क्यों कहलाता है? जानिए घृष्णेश्वर मंदिर का इतिहास, दर्शन विधि, पौराणिक कथाएं और वहां कैसे पहुंचें
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग भोलेनाथ का एक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। यहां दूर-दूर से भक्त भगवान शिव के दर्शन करने आते हैं। यह स्थान धार्मिक महत्व के साथ-साथ सांस्कृतिक धरोहर भी है। यदि आप इस मंदिर के इतिहास, खासियत और दर्शन प्रक्रिया आदि के बारे में जानना चाहते हैं, तो इस लेख को पूरा पढ़ें और जानें घृष्णेश्वर मंदिर के बारे में सारी जानकारी एक साथ।
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग भगवान शिव को समर्पित मंदिर है जोकि भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से अंतिम ज्योतिर्लिंग माना जाता है। इसे ज्योतिर्लिंग को घुश्मेश्वर और कुसुमेश्वर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर शिवभक्त घुश्मा की श्रद्धा और भक्ति की कथा से जुड़ा हुआ है, जिन्होंने भोलेनाथ को प्रसन्न कर उन्हें प्रकट होने पर विवश कर दिया था।
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग का दर्शन करने से पापों का नाश और मोक्ष की प्राप्ति मानी जाती है। माना जाता है कि हर वर्ष हजारों श्रद्धालु यहां भगवान शिव की कृपा पाने के लिए आते हैं और उनकी भक्ति में लीन होकर जीवन को धन्य मानते हैं। घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग न केवल आध्यात्मिक ऊर्जा का स्रोत है, बल्कि यह श्रद्धा, त्याग और विश्वास की गाथा भी है, जो हर भक्त को शिव के और करीब ले आती है।
घृष्णेश्वर मंदिर महाराष्ट्र राज्य में स्थित है। यह पवित्र मंदिर छत्रपति संभाजी नगर (जिसे पहले औरंगाबाद के नाम से जाना जाता था) जिले में आता है और वेरुल नामक एक छोटे से गांव में स्थित है। घृष्णेश्वर मंदिर, विश्वप्रसिद्ध एलोरा की गुफाओं के बिल्कुल पास है, जिससे इसका धार्मिक महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। मंदिर, दौलताबाद से लगभग 11 किलोमीटर की दूरी पर है और छत्रपति संभाजी नगर से लगभग 30 किलोमीटर दूर पर है।
वहीं, यह स्थान सह्याद्री पर्वतमाला की गोद में बसा हुआ है और इसकी शांति, हरियाली और वातावरण हर श्रद्धालु को दिव्यता का अनुभव कराते हैं। एलोरा की गुफाएं, जहां घृष्णेश्वर मंदिर स्थित है, यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में भी मान्यता प्राप्त हैं। यह मंदिर अपनी वास्तुकला, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और पौराणिक कथा के कारण शिव भक्तों के लिए अत्यंत पूज्यनीय स्थल है।
घृष्णेश्वर मंदिर का इतिहास धार्मिक समृद्ध और गौरवपूर्ण है, जो धार्मिक आस्था के साथ-साथ स्थापत्य कला की उत्कृष्टता को भी दर्शाता है। इसका मूल निर्माण 13वीं शताब्दी में हुआ था, लेकिन बाद में दिल्ली सल्तनत के आक्रमण के दौरान इसे नष्ट कर दिया गया। 16वीं शताब्दी में मराठा शासक शिवाजी महाराज के दादा मालोजी भिसाले ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिससे यह फिर से एक प्रमुख तीर्थस्थल के रूप में स्थापित हुआ।
वर्तमान भव्य रूप रानी अहिल्याबाई होल्कर की देन है, जिन्होंने 18वीं शताब्दी में इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया और इसे धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से पुनः प्रतिष्ठित किया। यह मंदिर दक्षिण भारतीय स्थापत्य शैली में बना है और लाल पत्थरों की संरचना इसकी विशेषता है। इसकी दीवारों, खंभों और छतों पर की गई जटिल नक्काशी, धार्मिक दृश्यों और देवी-देवताओं की मूर्तियों के रूप में देखने को मिलती है, जो इसकी कलात्मक सुंदरता को और भी बढ़ाते हैं।
घृष्णेश्वर मंदिर से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं, जो भगवान शिव के अनन्य भक्तिभाव और करुणा को दर्शाती हैं। घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर का उल्लेख पुराणों में मिलता है। यह मंदिर घृष्णा देवी और उनके पति सुदर्शन की कथा से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि घृष्णा देवी भगवान शिव की परम भक्त थीं। उन्होंने अपनी भक्ति और तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया। तभी से इस स्थान की पूजा घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में की जाती है।
पौराणिक कथा के अनुसार, सुधर्मा नामक ब्राह्मण अपनी पत्नी सुदेहा के साथ संतानहीन जीवन व्यतीत करते थे। जब सुदेहा को पता चला कि वह संतान उत्पत्ति में असमर्थ है, तो उन्होंने अपने पति की शादी अपनी छोटी बहन घुष्मा से करवा दी। घुष्मा शिवभक्त थीं और प्रतिदिन 101 पार्थिव शिवलिंग बनाकर उनकी पूजा करतीं और उन्हें एक पवित्र कुंड में विसर्जित कर देती थीं। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें एक पुत्र का वरदान दिया।
पुत्र की प्राप्ति से सुदेहा को ईर्ष्या होने लगी और उसने घुष्मा के पुत्र की हत्या कर शव को उसी कुंड में फेंक दिया, लेकिन घुष्मा ने अपने दुख को भी शिव की भक्ति में बाधा नहीं बनने दिया। उनकी अटूट भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए, उनके पुत्र को पुनर्जीवित किया और वरदान दिया कि वे इस स्थान पर घृष्णेश्वर नाम से ज्योतिर्लिंग रूप में सदैव विराजमान रहेंगे। तभी से यह मंदिर घृष्णेश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ जोकि शिवभक्तों के लिए आस्था का प्रतीक है।
मंदिर में प्रातःकाल 5ः30 बजे का समय दर्शन के लिए सबसे उत्तम माना जाता है, क्योंकि वातावरण शांत रहता है और भीड़ भी कम होती है। इस दौरान रुद्राभिषेक और व्यक्तिगत पूजा करने के लिए आदर्श स्थिति रहती है। दोपहर के समय, यानी 12 बजे से 4 बजे तक, मंदिर में दर्शन और पूजन जारी रहता है, हालांकि इस अवधि में महा नैवेद्य अनुष्ठान के बाद गतिविधियां अपेक्षाकृत शांत हो जाती हैं। इस समय श्रद्धालु शांति से भगवान के दर्शन कर सकते हैं या विश्राम क्षेत्र में बैठकर ध्यान साधना कर सकते हैं।
शाम होते ही मंदिर का वातावरण एक बार फिर भक्तिमय और ऊर्जावान हो जाता है। रात 9 बजे शयन आरती के साथ भगवान शिव को विश्राम के लिए प्रतीकात्मक रूप से विदा किया जाता है और इसके बाद मंदिर के द्वार बंद हो जाते हैं। विशेष पर्वों जैसे महाशिवरात्रि, श्रावण मास के सोमवार और प्रदोष व्रत पर मंदिर का समय बढ़ा दिया जाता है, जिससे अधिक श्रद्धालु भगवान शिव के दर्शन का लाभ ले सकें।
घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग आसानी से पहुंचा जा सकता है। इस ज्योतिर्लिंग तक पहुंचने के लिए हवाई, रेल और सड़क तीनों मार्गों से आसान और सुगम यात्रा की जा सकती है। तो आइए जानते हैं कैसे पहंचें इन माध्यमों से मंदिर तक।
अगर आप हवाई मार्ग से घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग पहुंचना चाहते हैं तो इसके लिए सबसे निकटतम हवाई अड्डा छत्रपति संभाजी नगर हवाई अड्डा है, जो मंदिर से लगभग 35 किलोमीटर दूर है। यह हवाई अड्डा मुंबई, दिल्ली, पुणे, नागपुर जैसे प्रमुख शहरों से नियमित उड़ानों के जरिए जुड़ा हुआ है। हवाई अड्डे से टैक्सी या अने्य प्रावेट कैब, कार आदि के माध्यम से मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सकता है, जिसमें लगभग 45 मिनट का समय लगता है।
अगर आप रेल मार्ग से इस मंदिर तक पहंचना चाहते हैं तो छत्रपति संभाजी नगर रेलवे स्टेशन सबसे नजदीकी स्टेशन है, जो लगभग 30 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्टेशन देश के कई प्रमुख रेलवे स्टेशनों से सीधे जुड़ा हुआ है। यहां से मंदिर तक टैक्सी, ऑटो या बस की सुविधा उपलब्ध रहती है, जिससे आप आराम से यात्रा पूरी कर सकते हैं।
आप इस मंदिर के लिए सड़क मार्ग से आसानी से पहुंच सकते हैं जोकि काफी सुविधाजनक और सरल है। राष्ट्रीय राजमार्ग (NH-160 और NH-52) के माध्यम से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। छत्रपति संभाजी नगर से मात्र 30 किलोमीटर दूर होने के कारण स्थानीय बसें, निजी वाहन, टैक्सी या टूरिस्ट कैब के माध्यम से भी यह यात्रा बहुत सरल बन जाती है। आप इन तीनों माध्यमों से किसी का भी उपयोग करके भोलेनाथ के दर्शन आसनी से कर सकते हैं।
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