चेरापाहरा रस्म क्या है? गजपति राजा रथ यात्रा में सोने की झाड़ू से भगवान जगन्नाथ के रथों की सफाई करते हैं। जानें इस पवित्र परंपरा का महत्व और इससे जुड़ी आध्यात्मिक बातें।
क्या आपने कभी सोने की झाड़ू से रथ के आगे सफाई होते देखा है। अगर नहीं, तो जानिए पुरी की रथ यात्रा की सबसे खास रस्म छेरा पहरा के बारे में, जिसमें यह ऐसा होता है। इस अनोखी परंपरा के बारे में और अधिक जानने के लिए हमारे इस लेख को पूरा पढ़ें और जानिए इस रोचक रस्म के बारे में संपूर्ण जानाकारी।
छेरा पहरा भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का विशेष अनुष्ठान है, जो हर साल ओडिशा के पुरी शहर में आयोजित की जाती है। यह रस्म पोहंडी बिजे के बाद की जाती है। भगवान को रथ पर विराजने की क्रिया को पोहंडी बिजे कहते हैं। पोहंडी बिजे के बाद छेरा पहरा की रस्म होती है, जोकि रथ यात्रा के पहले दिन होती है। छेरा पहरा शब्द का अर्थ झाड़ू लगाना और पानी छिड़कना है।
इस रस्म में पुरी के महाराज स्वर्ण झाड़ू (सोने की झाड़ू) से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथों के आगे के रास्ते की सफाई करते हैं और चंदन वाले जल का छिड़काव करते हैं। यह रस्म विनम्रता, सेवा और समानता का प्रतीक है, जहां महाराज या राजा भी खुद को ईश्वर का सेवक मानते हुए उनके चरणों में झुकते हैं। यही कारण है कि यह परंपरा लोगों के लिए सिर्फ रस्म नहीं, बल्कि आस्था और समर्पण का जीवंत प्रतीक बन चुकी है।
यह रस्म ओडिशा के पारंपरिक गजपति राजा द्वारा निभाई जाती है। जानकारी के अनुसार, वे स्वयं को भगवान जगन्नाथ का प्रथम सेवक (अधिकार सेवक) मानते हैं। इस मौके पर राजा सोने की झाड़ू लेकर रथ के आगे की ज़मीन साफ करते हैं। इस परंपरा को करने का मतलब यह है कि भगवान के सामने सभी लोग बराबर होते हैं चाहे वह राजा हो या आम इंसान। यह रस्म हमें सिखाती है कि सेवा करना ही सच्चा धर्म है। ऐसा करके वह भगवान के प्रति अपनी भक्ति और नम्रता दिखाते हैं।
छेरा पहरा रथ यात्रा की हर साल पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के दौरान दो बार निभाई जाती है। पहली बार यह रस्म तब होती है जब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को श्रीमंदिर से रथ पर विराजमान किया जाता है। वहीं, दूसरी बार तब जब वे रथ यात्रा के अंत में गुंडिचा मंदिर से वापस लौटते हैं।
इस रस्म की खास बात यह है कि पुरी के गजपति महाराज, जो ओडिशा के परंपरागत शासक माने जाते हैं, राजसी वस्त्र त्यागकर एक सामान्य धोती पहनते हैं। वे नंगे पांव, हाथ में सोने की झाड़ू लेकर भगवान के तीनों रथों, नंदिघोष, तलध्वज और दर्पदलन के चारों ओर सफाई करते हैं। इसके बाद चंदन मिश्रित पवित्र जल से रथ के मार्ग को धोया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान राजा भगवान के चरणों में झुककर अपना पूर्ण समर्पण दिखाते हैं। यह रस्म बताती है कि ईश्वर के सामने सभी बराबर हैं, चाहे वह राजा हो या सामान्य भक्त।
छेरा पहरा रस्म भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा का एक गहरा धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। यह रस्म बताती है कि ईश्वर के समक्ष कोई छोटा-बड़ा नहीं होता सभी एक समान हैं। यह रस्म सिखाती है कि सच्ची भक्ति में अहंकार का कोई स्थान नहीं है। भूमि की सफाई करना न केवल प्रतीकात्मक रूप से पवित्रता का संकेत देता है, बल्कि यह इस बात को भी दर्शाता है कि ईश्वर की सेवा में हर कार्य पवित्र है, चाहे वह छोटा हो या बड़ा। साथ ही, यह रस्म समाज को समानता, सेवा, समर्पण और शुद्ध आचरण का भी संदेश देती है।
छेरा पहरा रस्म की परंपरा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है। माना जाता है कि जब पुरी के गजपति राजाओं ने खुद को भगवान जगन्नाथ का सेवक घोषित किया, तभी से इस रस्म की नींव पड़ी। स्कंद पुराण और अन्य धार्मिक ग्रंथों में भी इस रस्म का उल्लेख मिलता है। यह रस्म न केवल धार्मिक, बल्कि सामाजिक दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है।
छेरा पहरा रस्म केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि आस्था, भक्ति और विनम्रता का ऐसा प्रतीक है जो राजा को भी सेवक बना देता है। यह अनुष्ठान हमें यह सिखाता है कि भक्ति में कोई भेद नहीं होता न जाति का, न पद का, न धन का। यही कारण है कि यह रस्म रथ यात्रा का सबसे भावनात्मक, प्रभावशाली और दर्शनीय हिस्सा बन चुकी है, जो हर वर्ष करोड़ों श्रद्धालुओं के हृदय को छूती है।
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